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णमोकार ग्रंथ
मद्यवम्बर
कामिष मधुत्यागाः कृपाप्राणिनां
नक्तं भुक्ति विमुक्तिराप्त विनुति स्तोयं सुवस्त्रस्त्र त ॥
अष्टौ ते प्रगुणागुणागण घरं रागारिणा
एके
कीर्तितां ।
नगेहाश्रमी ॥
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अर्थ- - मद्य का त्याग, पांच उदम्बर फलों का त्याग, मांस का त्याग, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग तथा प्राणियों पर दया करना, देव वन्दना करना और छना हुआ पानी प्रयोग में लाना-ऐसे ये अष्ट मूलगुण श्रावकों के लिए गणधर देव ने कहे हैं। यदि इनमें से एक भी गुण कम हो तो उसे गृहस्थ अर्थात् श्रावक नहीं कह सकते ।
मद्यदोष -मथ के बनाने के लिए महुआ, दाख श्रादि अनेक पदार्थों को बहुत दिन तक सड़ाकर पीछे यन्त्र के द्वारा उनकी शराब उतारी जाती है । यह महा दुर्गन्धित होती है और इसके बनने में असंख्यात और अनन्त त्रस व स्थावर जोवों की हिंसा होती है। इसके अतिरिक्त इसके पीने से मोहित हुए जीव धर्म कर्म को भूलकर निशंक पंच पापों में प्रवृत्ति करते हुए इस भव और परभव दोनों लोकों का सुख नष्ट करते हैं । मद्य के पान करने से मोहित चित्त वाला पुरुष माता, स्त्री, पुत्र, बहिन यादि की सुध-बुध भूलकर निर्लज्ज होकर यद्वा तद्वा बर्ताव करता हुआ, दुर्वचन बोलता हुआ, सेव्य, मनुपसेव्य से विवेक रहित मांस आदि भक्षण करता हुआ और न पीने योग्य पदार्थों का पान करता हुआ वह अन्त में नरकगति को प्राप्त होकर अति तीव्र, घोर दुःख अनन्तकाल पर्यन्त भोगता है। इस प्रकार विचार कर संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया आदि उत्तम गुणों को अग्नि के कणवत् भस्म करने वाले उभय लोक दुखदायी नरक आदि दुर्गति के कारण मद्य को पीने का आत्महितेच्छुक पुरुषों को अवश्य त्याग कर देना चाहिए। चरम, चंडू, अफीम, गांजा, भांग, माजून आदि समस्त मदकारक पदार्थों को मदिरापान के सदृश धर्म, कर्म दोनों से भ्रष्ट करा देने वाला जानकर मद्यपान त्यागी को इनका भी त्याग करना चाहिए ।
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मांसदोष- यह त्रस जीवों की द्रव्य हिंसा करने से उत्पन्न होता है। इसके स्पर्श, आकृति, नाम और दुर्गन्ध से ही चित्त में महाघृणा उत्पन्न होती है। यह जीवों के रक्त, वीर्य, मज्जा आदि सप्त धातु मौर, उपधातु रूप स्वभाव से ही अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस पिंड चाहे कच्चा हो चाहे अग्नि मे पकाया हुआ हो अथवा पक रहा हो उसमें प्रत्येक अवस्था में उसी जाति के साधारण जीव, प्रत्येक जीव संख्या अनन्त पैदा होते रहते हैं। ऐसा मांस सेवी पुरुष उभय लोक में दुःख पाता है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भद मौर भाव इन पंच परावर्तन रूप दुःखमय संसार में अनन्त काल पर्यन्त नरकादि दुर्गतियों में परिभ्रमण करता हुआ महान दुःसह दुःख भोगता है। अतएव मांस भक्षण को उभयलोक दुःखदायी जानकर अहिंसा धर्म पालन करने वालों को मांस भक्षण नहीं करना चाहिए।
मधुदोष - जिसको मधुमक्खी, केतकी, नीम आदि के एक-एक पुष्पं के मध्य भाग से रस को चूस चूसकर लाती है और फिर उसे वमन कर अपने छत्ते में एकत्र कर उसकी रक्षार्थ वहीं रहती है मौर जिसमें प्रत्येक समय संमूर्च्छन जाति के छोटे-छोटे अंडे उत्पन्न होते रहते हैं भील मादि शहद निकालने वाले निर्दय क्रूर परिणामी नीच जाति के मनुष्य धूम यादि के प्रयोग से मधुमक्षिकाओं को उड़ाकर उन मधुमक्खियों के छत्ते को तोड़कर शेष बची मक्खियों पौर घंडो सहित दाव निचोड़कर निकालते हैं ऐसे संस्य प्राणियों के समुदाय को विनाश करने से उत्पन्न हुए, लार समान घृणित भोर मांस के समान