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णमोकरा य एक समय सुप्रतिष्ठपुर के सुन्दर उपवन चारण ऋषिधारी ऋजुमति और विपुलमति ज्ञान के धारक मुनि प्राए । प्रीतिकर तब बड़े वैभव के साथ पुरजन तथा परिजन सहित प्रत्यानंद को प्राप्त होकर मुनि के दर्शनार्थ गया । मुनिराज के चरणों में साष्टांग नमस्कार कर पदचात् भ्रष्ट द्रव्य से पूजा की और बड़ी विनती के साथ विनय की 'हे नाथ! मुझे संसार से पार करने वाले धर्म का उपदेश दीजिये । तव ऋजुमति मुनि ने उसे इस प्रकार संक्षेप में धर्म का स्वरूप कहा हे प्रीतिकर धर्म उसे कहते हैं जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख को प्राप्त करने में कारण हो । वह धर्म दो प्रकार का है एक मुनि धर्मं दूसरा गृहस्य धर्मं । मुनियों का धर्म सर्व त्याग रूप होता है और गृहस्थ का धर्म एक देश त्याग रूप होता है ।
मुनि धर्म तो उन लोगों के लिए है जिनकी आत्मा पूर्ण बलवान है, जिनमें प्राप्त हुए कष्टों को सहन करने की पूर्ण शक्ति है और गृहस्थ धर्म मुनि धर्म को प्राप्त करने की सीढ़ी है। जिस प्रकार एक साथ सौ पचास सीढ़ी नहीं पढ़ी जा सकती उसी प्रकार साधारण लोगों में एकदम मुनि धर्म धारण करने की शक्ति नहीं होती श्रतएव मुनि धर्म प्राप्त करने के लिए उन्हें क्रम-क्रम से अभ्यास रूप ग्यारह प्रतिमानों का साधन करना चाहिए जिनका मुनियों ने निरूपण किया है। उनके यथाक्रम ठीक-ठीक अभ्यास करने से वे ही श्रावक के व्रत ग्यारवी प्रतिमा में महाव्रत रूप को प्राप्त हो जाते हैं इसीलिए अल्प शक्ति वाले पुरुषों को पहले गृहस्थ धर्म धारण करना पड़ता है। मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म में सबसे बड़ा अन्तर तो यह है कि मुनि धर्म तो साक्षात मोक्ष सुख का कारण है और दूसरा परम्परा मोक्ष सुख का कारण है श्रावक धर्म मूल कारण है सम्यग्दर्शन का पालन । यही मोक्षबीज है । इसके प्राप्त किए बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता ही नहीं । सम्यग्दर्शन के बिना जो ज्ञान है वह मिथ्या ज्ञान कहलाता है और व्रत आदि का धारण करना कुचारित्र है प्रतएव ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की मुख्यतया उपासना की जाती है इसी अभिप्राय से यद्यपि द्रव्यलिंगी मुति चारित्र धारण करता है तथापि सम्यक्त्व रहित होने से मोक्षमार्गी नहीं कहा है क्योंकि उसे जीव के स्वभाव विभाव का दृढ़ निश्चय हुए बिना कर्तव्य प्रकत्र्तव्य की यथार्थं प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसके जाने बिना और उद्देश्यों के समझे बूझे बिना व्रत श्रादि धारण करने में अन्धे की दौड़ के समान अपनी असली स्वाभाविक सुख अवस्था को वह नहीं पा सकता इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को सबसे पहले सम्यग्दर्शन को इसके प्राठों अंगों सहित पालना चाहिए सम्यक्त्व धारण करने के पहले मिथ्यात्व को छोड़ना चाहिए क्योंकि मिध्यात्व ही प्रात्मा का एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो इस जीवात्मा को अनन्तकाल पर्यन्त इस संसार चक्र में घुमाया करता है। मिथ्यात्व का संक्षिप्त लक्षण है जिन भगवान के द्वारा उपदिष्ट तत्व या धर्म से उल्टा चलना और धर्म से यही उल्टापन दुःख का कारण है इसीलिए आत्म हितेच्छु भव्य पुरुषों को मिथ्यात्व के परित्याग पूर्वक शास्त्र अभ्यास द्वारा अपनी बुद्धि को दर्पणवत् निर्मल बनाकर मद्य मादि भ्रष्ट पदार्थों का त्याग कर श्रावक के अहिंसा आदि बारह उत्तर गुणों को धारण करना चाहिए । ये मद्य त्याग प्रादि आठ मूल गुण धारण करने के पीछे धारण किए जाते हैं और मूल गुणों से उत्कृष्ट हैं इसीलिए उन्हें उत्तर गुण कहते हैं । मद्य, मांस आदि के त्यागी को रात्रि भोजन का, चर्म पात्र में रखे हुए हींग, घी, जल, तेल आदि का तथा कन्दमूल, प्रचार, मुरब्बे तथा मक्खन का भी त्याग कर देना शाहिए क्योंकि इनके खाने से मांस त्याग व्रत में दोष आता है। जुम्रा खेलना, मांस भक्षण, मदिरा पान, वेश्या सेवन, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्रीगमन ये सप्त व्यसन दुर्गति के दुस्सह् दुःखों को प्राप्त करने वाले जान सर्वथा त्यागने योग्य है। इनका सेवन कुल, जाति, धन, जन, शरीर, सुख, कीर्ति
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