________________
१८०
णमोकार बंथ
देव बंदना
सर्वज्ञ, हितोपदेशी परम पीतरागो शान्तस्वरूप श्री अरिहन्त देवाधिदेव की जीवन्मुक्त साक्षात् अवस्था में अथवा उसी सकल परमात्मा के स्मरणार्थ और परमात्मा के प्रति प्रादर सत्कार रूप प्रर्वतन के पालम्बन स्वरूप स्थापना, निक्षेप से मित्रों द्वारा प्रतिष्ठित तदाकार प्रतिबिम्ब रूप में विशुद्ध अन्तः करण से अपना भाग्योदय समझ अत्यन्त हर्षित होते हुए दर्शन करने, परमात्मा के गुणों में अनुराग बढ़ाने परमात्मा का भजन और स्वरूप का चिंतन करने रूप देव बन्दना करने से इस जीवात्मा को मागामी दुःखों और पापों की निवृत्तिपूर्वक महत् पुण्योपार्जन होता है पुनः वीतराग और परम शान्त मूति के निरन्तर सप्रेम दर्शन आदि करने से सम्यकत्व की निर्मलता, धर्म में श्रद्धा और अन्तःकरण शुद्ध होता है। इस देव वंदना का अन्तिम फल मोक्ष कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि जो जीवात्मा गृहस्थ के प्रपंच व संसार के मोह जाल में फंसे हए हैं उनका प्रात्मा इतना बलिष्ठ नहीं होता है कि जो केवल शास्त्रों में परमात्मा का स्वरूप वर्णन सुनकर अर्थात् प्रागम द्वारा परमात्मा का स्वरूप जानकर एकाएक बिना किसी चित्र के पालम्बन के परमात्मा के स्वरूप का चित्र अपने हृदय में अंकित कर ही इस मूर्ति के द्वारा परमात्मा स्वरूप का कुछ ध्यान और चितवन करने में समर्थ हो अपने प्रात्म स्वरूप की प्राप्ति अवसर हो जाती है। जिस प्रकार जब कोई चित्रकार चित्र खींचने का अभ्यास करता है तब वह सबसे पहले सुगम और सरल चित्रों को देखकर चित्र खींचने का अभ्यास करता है एकदम किसी कठिन और गहन चित्र को नहीं खींच सकता जब उसको दिन प्रतिदिन का अभ्यास पड़ जाता है तब वह कठिन और गहन चि, बनाने के साथ-साथ छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा भी बनाने लगता है। जब वह उत्तरोत्तर अभ्यास करते-करते चित्रकारी में पूर्णतया दक्ष हो जाता है तब चित्र नायक के बिना देखे ही केवल उसको व्यवस्था जानकर उसका साक्षात् चित्र अंकित करने लग जाता है । उसी प्रकार यह संसारी जीव भी एकदम निरालम्बन परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकता इसीलिए वह परमात्मा की ध्यान मुद्रा पर से ही अपना अभ्यास बढ़ाता है । मूर्ति के निरन्तर दर्शन आदि अभ्यास में जब यह ध्यान मुद्रा से परिचित हो जाता है तब शनैः शनैः एकान्त में स्थित होकर उस मूर्ति का चित्र अपने हृदय पर अंकित करने लगता है ऐसा करने से उसका प्रात्मबल, मनोबल दिनोंदिन वृद्धि को प्राप्त होकर । मूर्ति के नायक श्री अरिहन्त देवाधिदेव की समवशरण प्रादि विभूति सहित साक्षात चित्र को अपने हृदय में प्रतिकृति करने लगता है इस प्रकार के ध्यान को रूपस्थ ध्यान कहते हैं और वह ध्यान प्रायः मुनि अवस्था में ही होता है। प्रात्मीय बल के इतने उन्नत हो जाने की अवस्था में फिर उसको धातु पाषाण की मूर्ति पूजन प्रादि अर्थात् परमात्मा के ध्यान आदि के लिए मूर्ति का पालम्बन लेने की प्रावश्यकता नहीं रहती। किन्तु वह रूपस्थ ध्यान के अभ्यास में परिपक्व होकर विशेष उन्नति कर साक्षात् सिद्धों के चित्र को खीचने लगता है । इस प्रकार ध्यान के बल से वह अपनी आत्मा के कर्ममल को पृथक् करता रहता है और फिर उन्नति के सोपान पर चढ़ता हुमा प्रशस्त शुक्लध्यानाग्नि के बल से समस्त कर्मों का क्षय कर देता है और इसी प्रकार अपने प्रात्मत्व को प्राप्त कर लेता है और उस प्रवस्था को प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनना सब ग्रात्माओं को प्रभीष्ट है। अब प्रात्म स्वरूप की दूसरे शब्दों में ओं कहिये कि परमात्मा स्वरूप को प्राप्ति के लिए परमात्मा की भक्ति, पूजा और उपासना करना हमारा परम कर्तव्य है परमात्मा का ध्यान, परमात्मा के गुणों का चितवन ही हमें अपनी पात्मा का स्मरण कराता है । अपनी भूली हुई निधि की स्मृति कराता है। इसका अभिप्राय यह है कि परमात्मा का दर्शन, स्तवन और पूजन करना हमारी पारमा के लिए पात्मदर्शन का प्रथम सोपान है और