________________
१६८
णमोकार ग्रंथ
कर्म का प्रभाव हो गया ऐसा पुरुष स्वयं की प्रिय लगने वाले चक्षु रसमा आदि इन्द्रिय जनित सुखों को निद्य और अनुपसेव्य जानता है और अपनी आत्मा से उत्पन्न नित्य प्रविनाशी मोक्षमुख के प्राप्त होने की उत्कट इच्छा रखता है तथापि अप्रत्याख्यानावरणं, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जनित सुख दुःखों का अनुभव करता है क्योंकि अपने समय के अनुसार आए हुए कर्मों के उदय फल को अवश्य भोगना पड़ता है ऐसा जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह चारित्र मोहनीय कर्म की अल्पमंदता होने से अप्रत्याख्यानावरण का उपशम हुआ होने से तथा शक्ति रहित अथवा हीन संहनन होने के कारण हिंसादि पापों का पूर्ण रूप से त्याग करने की उत्कट लालसा रखता हुआ देशवती का श्रभ्यास करते हुए क्रमपूर्वक राग द्वेष मोहादि को घटाकर पीछे हिंसादि पंच पापों का पूर्ण त्याग कर मुनिव्रत धारण करता है और मोक्ष का पात्र बनता है यही राज मार्ग है क्योंकि विषय, कषाय आदि के घटे बिना मुनिव्रत धारण कर लेना किसी कार्य के न करने वाला व्यर्थं स्वांग मात्र है । इसीलिए सम्यक्त्व प्राप्त होने पर रागद्वेष की निवृति के लिए सम्यक् चारित्र को अवश्य धारण करना चाहिए। जैसा कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा गया है
आर्या छन्द
मोहतिमिरापहरणं दर्शनलाभाववान्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्यैः चरणं प्रतिपद्यते साधुः ||
अर्थ-दर्शन मोहनीय रूप अन्धकार के नाश होने पर जिसको सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से संशय विपर्यय और श्रध्यवसाय रहित सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है जिसको ऐसे सम्यदृष्टि भव्य पुरुष को राग द्वेष दूर करने के लिए सम्यक् चारित्र धारण करना चाहिये वह चारित्र सकल और विकल रूप से दो प्रकार का है । समस्त प्रकार के परिग्रहों से विरक्त अनागार (साक्ष्यों) का तो मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनों से पंच पापों का सर्वथा त्याग रूप सकल चारित्र है और गृह यदि परिग्रह सहित गृहस्थियों का इन पापों के एक देश त्याग रूप विकल चारित्र है ।
अव प्रथम ही मुनि के चारित्र को कथन न करके एकोदेश त्याग रूप गृहस्थ के विकल चारित्र का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया जाता है क्योंकि मुनि धर्म तो उन लोगों के लिये है जिनके चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो चुका है तथा दु संहनन के धारण और विषय भोगों से निस्पृही प्राप्त हुए कष्टों के सहन करने को पूर्ण शक्तिवान है। गृहस्थ धर्म उस मुनि धर्म के प्राप्त करने का मार्ग है । जिस प्रकार बहुत काल से माने वाले ज्वर से अशक्त मनुष्य को पहले पीने योग्य पेय पदार्थ प्रौर तत्पश्चात् खाद्य पदार्थ सेवन कराये जाते हैं उसी प्रकार विषय रूपी विषय भन्न के सेवन करने से जो मोह जर उत्पन्न हुआ है और उस मोह ज्वर के सम्बन्ध से जिसको विषय सेवन करने की लालसा रूप तीव्र तृष्णा प्रगट हुई है ऐसे पुरुष को प्रथम ही योग्य विषयों का सेवन करना प्रौर क्रम से छोड़ना कल्याणकारी होता है। इसका दूसरा दृष्टान्त मे हैं कि जैसे बहुत समय से किसी नशे का सेवन करने वाले मनुष्य का एकाएक उस व्यसन से छूटना मशक्त जान क्रम क्रम से उसे न्यून सेवन करने का उपदेश दिया जाता है जिसे वह क्रमशः कम करते-करते अन्त में उसको सर्वथा त्याग करना ही कल्याण कारी जान, छोड़ देता है उसी प्रकार अनादि काल से सेवन किये हुये पंचेन्द्रिय जनित विषय सुख से छुड़ाने और स्व में प्राप्त होने के लिए एकदम सर्व परिग्रह को छोड़ मुनि धर्म धारण करने की 'शक्ति सर्व साधार जीवों में न जान ऐसे हीन पराक्रमी मनुष्यों के लिए जिनेन्द्र भगवान ने गृहस्थाश्रम में रहकर श्रावक व्रतों के धारण करने का उपदेश दिया है क्योंकि जिससे उनको यथाक्रम धावक व्रती