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णमोकार मंथ
कभी अच्छे-अच्छे बुद्धिमान भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई श्राश्वर्य की बात नहीं। यह मच्छा हुआ जो तुम अपने मार्ग पर ग्रा गये ।
इसके पश्चात उन्होंने पुष्पडाल मुनि को उचित प्रायश्चित देकर फिर उनका धर्म में स्थिति करण किया । पुष्पडाल मुनि गुरु महाराज की कृपा से अपने हृदय को शुद्ध कर महः वैराग्य परिणामों से कठिन से कठिन तपस्या करने लगे ।
इसी प्रकार अज्ञान व मोह से कोई धर्मात्मा धर्म रूपी पर्वत से पतित होता हो तो उसे श्रालम्बन देकर न गिरने देना ही स्थितिकरण है। जो धर्मज्ञ पुरुष इस पवित्र अंग का पालन करते हैं वे मानों स्वर्ग और मोक्ष सुख को प्रदान करने वाले धर्मवृक्ष को सींचते हैं । शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि विनाशक पदार्थों की रक्षा भी जब समय परक उपकारी हो जाती है तो अनन्त सुख प्रदान करने वाले धर्मको रक्षा से कितना महत्व होगा, यह सहज में ही जाना जा सकता है । श्रतएव धर्म प्रेमी सज्जनों के लिए उचित है कि दुःखदायी प्रमाद को छोड़कर संसार समुद्र से पार करने वाले धर्म का सेवन करें। ।। इति स्थितिकरणाने वारिषेण श्रीमुनेः कथा समाप्ता ॥
॥ श्रथ सप्तम् वात्सल्यगस्वरूप व कथा प्रारम्भः ॥
धर्म और धर्मात्माओं में अन्तःकरण से अनुराग करना, भक्ति तथा सेवन करना इन पर किसी प्रकार का उपसर्ग या संकट आने पर अपनी शक्ति भर उसके हटाने का प्रयत्न करना और निष्कपट गौवत्ससम प्रीति करना वात्सल्यत्व गुण है । सम्यग्दर्शन के सातवें वात्सल्यांग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले श्री विष्णुकुमार मुनि की कथा उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है
|| अथ कथारंभ |
इस ही भरत क्षेत्र में प्रतिदेश के अन्तर्गत उज्जयिनी नाम की एक प्रसिद्ध मनोहर नगरी है। जिस समय की एक कथा है. उस समय वहां के राजा श्रीवर्मा थे । वे बड़े धर्मात्मा विचारशील, बुद्धिवान, शास्त्रवेत्ता और नीतिपरायण थे। उनकी महारानी का नाम श्रीमती था। वह भी विदुषी थी और उस समय की स्त्रियों में प्रधान समझी जाती थीं । वह बड़ी दयालु थी और सदैव दीन दुःखी दरिद्रियों के दुःख दूर करने में तत्पर रहती थीं ।
बलि, बृहस्पति प्रहलाद और नमुचि ये चार श्रीवर्मा के राज्यमंत्री थे। ये चारों ही धर्म के कट्टर शत्रु थे । इन पापी मन्त्रियों से युक्त राजा ऐसे मालुम होते थे मानों सर्पों से युक्त चन्दन का वृक्ष हो । एक दिन ज्ञानी अकंपनाचार्य देश विदेश में पर्यटन कर भव्य पुरुषों को धर्मोपदेश रूपी अमृतपान कराते हुए उज्जैनी में आये। उनके साथ सात सौ मुनियों का बड़ा भारी संघ था। वे नगर के बाहर पवित्र भूमि में ठहरे। कम्पाचार्य को निमित्त ज्ञान से उज्जयनी की स्थिति प्रनिष्टकर जान पड़ी। इसलिए उन्होंने अपने संघ से कह दिया- देखो ! राजा आदि कोई दर्शनार्थ श्रावे तो उनसे वाद-विवाद न कीजियेगा, अन्यथा सारा संघ कष्ट में पड़ जायेगा अर्थात उस पर घोर उपसर्ग होगा। गुरु की प्राशा मान सभी मुनि मौन पूर्वक ध्यान करने लगे। सच है -
शिष्यस्ते प्रणश्यते ये कुर्वन्ति गुरोर्वचः ।
प्रीतितौ षियोयेता भवन्त्यन्ये कुपुत्रवत् ।।
अर्थात शिष्य वे ही प्रशंसा के पात्र हैं जो विनय और प्रेम के साथ अपने गुरु की आज्ञा पालन करते हैं । इसके विपरीत चलने वाले कुपुत्र के समान निंदा के पात्र हैं ।