________________
णमोकार ग्रंथ
॥अथ सम्यग्ज्ञान विवरण प्रारम्भ ॥ सम्यक्त्व रूपी रत्न से अपनी मात्मा को पवित्र करने के पश्चात् स्व तथा पर के गुण अर्थात् धर्मों के प्रकाश करने में सूर्य के समान सम्यग्ज्ञान की पाराधना करना चाहिए। यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही जो ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है तथापि लक्षण भेद होने से उसकी भिन्न माराधना करनी चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन कारण और सम्यग्ज्ञान कार्य है जैसे दीपक प्रकाश होने का कारण है वैसे ही सम्यक्त्व अर्थात यथार्थ श्रद्धान सम्यग्शान होने का कारण है। गाथा
संसय विमोह विभम विवस्जिय अप्प परसहवस्स ।
गहणं सम्मणाणं सायारमणेयमे ।। अर्थात् संशय, विपर्यय और मनध्यवसाय रहित, पाकार सहित अर्थात् विशेष स्वरूप सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यग्ज्ञान है। यद्यपि वास्तव में वह सम्यग्ज्ञान प्रात्मा का प्रसिद्ध गुण है जिसके द्वारा ही मात्मा का बोर होता है, वह असर पतन्य रूप एक ही प्रकार है, तथापि अनादि काल से मानावरण कर्म की प्रकृतियों से प्रावृत होने के कारण अनेक भेद रूप है। परन्तु मुख्यतया मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञान ऐसे पांच प्रकार हैं।
इनमें से प्रथम के चार शान तो अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम के अनुसार होनाधिक होते रहते हैं, इसलिए इनको क्षयोपशामिक ज्ञान कहते हैं, परन्तु केवलज्ञान केवल ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा प्रभाव होने से प्रकट होता है अतएव इसको क्षायिक ज्ञान कहते हैं । उपरोक्त पांचों शानों में से मति, श्रत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यादर्शन के उदय से विपर्यय अर्थात मियाज्ञान भी होते सम्यक्त्व के प्रादुर्भूत होने पर सत्यासत्य के निर्णय रूप यथार्थ ज्ञान हो जाता है तब मति, श्रुत और अवधि हो समीचीन ज्ञान कहलाते हैं और ये ही पाँचों ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से दो प्रकार भी होते हैं। उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो परोक्ष हैं क्योंकि ये पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होते हैं, पर मतिज्ञान को इंद्रिय प्रत्यक्ष होने से व्यावहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अवधि और मनःपर्ययज्ञान किंचित प्रत्यक्ष हैं क्योंकि रूपी द्रव्य और मर्यादित क्षेत्र की बार्ता की जानते हैं । केवलज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है क्योंकि अन्य इन्द्रियादिक की सहायता के बिना अपने अच्छे स्वच्छ स्वाभाविक ज्ञान से युगपत् समस्त द्रव्यों को उसको अनन्त पर्यायों सहित जानता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक जीव के मति और श्रुत ये दो ज्ञान प्रत्येक अवस्था में रहते हैं यदि तीन हों तो मति, श्रुत और अवधि या मति, श्रुत मौर मनः पर्यय ये तीन होते हैं। यदि चार हों तो मति, श्रत, प्रवधि और मनः पर्यय ज्ञान ये चार होते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो ज्ञान को खंड-खंड करने वाले ज्ञानावरणोय कर्म के क्षय होने से एक प्रखंड, स्वच्छ, स्वाभाविक केवलज्ञान होता है। इन पांचों ज्ञानों का स्वरूप इस प्रकार है।
मतिमान-मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार पांच इंद्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । वाद्य कारणों की अपेक्षा इसके छह भेद हैं--
१ स्पार्शन, २ रासन, ३ घ्राणज, ४ चाक्षुष, ५ श्रावण ओर ६ मानस ।
स्पर्शन इन्द्रिय से स्पर्श का जानना स्पार्शन, रसना इन्द्रिय से रस का जानना रासन, प्राणेन्द्रिय से सुगन्ध दुर्गन्ध का जानना प्राणज, चक्ष्वींद्रिय से रूप का जानना चाक्षुष, कर्णेन्द्रिय से शब्द का जानना श्रावण और मन से किसी विषय का मनन करना मानस मतिज्ञान है। स्मृति, संज्ञा, चिता, अभिनिबोध ये भी मतिज्ञान के ही नामांतर हैं पर्थात् ये सब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही होते हैं।