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णमोकार ग्रंथ देश किया जाता है और श्रावक धर्म का एकदेश । श्रावक धर्म परम्परा से मोक्ष का साधन है और मुनि धर्म साक्षात् मोक्ष का साधन ! मुनिधर्म से तद्भव मोक्षगामी होते हैं, ऐसा नियम नहीं। इसमें सब बात परिमाणों पर निर्भर है । ज्यों-ज्यों परिणामों की विशुद्धता होती जाती है त्यों-त्यों अन्तिम साध्य मोक्ष के निकट मनुष्य पहुंचता जाता है परन्तु मोक्ष होता है मुनिधर्म धारण करने से ही । इस प्रकार श्रावकधर्म, मुनिधर्म तथा उनकी विशेषताएँ जानकर वैराग्यवश हो सोमदत्त ने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली और अपने गुरु से शास्त्राध्ययन कर सर्व शास्त्रों में अच्छी योग्यता प्राप्त करने के पश्चात बिहार करते हुए सोमदत्त मुनिराज नाभिगिरी पर्वत पर पहुंचे। वहां उग्र तपश्चरण और परीषह सहन द्वारा अपनी यात्म शक्ति को बढ़ाने लगे । इधर समय पाने पर यज्ञदत्ता के पुत्र उत्पन्न हुप्रा । वह उसके सौन्दर्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुई।
एक दिन उसे किसी के द्वारा अपने स्वामी के समाचार मालूम हुए। उसने वह समस्त वृतान्त अपने कुटुम्बियों से कहा और उनसे उनके पास चलने का आग्रह कर अपने साथ ले नाभिगिरी पर पहुंची। उस समय सोमदत्त मुनिराज तापस योगध्यान कर रहे थे। यज्ञदत्ता उन्हें मुनिवेष में देखकर क्रोधित होकर बोली-रे पापी ! दुष्ट ! यदि तुझे ऐसा ही करना था तो पहले से ही मझे न ज्याहता । जरा बता तो सही, अब मैं किसके पास जाकर रहूं? और इस बच्चे का पालन-पोषण कौन करे ? मुझसे इसका पालन नहीं होता। तू ही इसे लेकर पाल ।
ऐसा कहकर वह निपी सादत्ता हिम श्रीका सेना पति मुनि चरणों में उस बेचारे बालक को पटक कर अपने स्थान पर चली गई । इतने में ही दिवाकर देव नाम का एक विद्याधर जो कि अपने लघु भ्राता पुरसुन्दर से पराजित होकर उसके देश से निकाल देने के कारण अपनी स्त्री को साथ लेकर तीर्थ यात्रा के लिए चल दिया था, वह इधर या निकला। पर्वत पर मुनिराज को देखकर व्योममार्ग से नीचे उतरा।
मुनिराज की वन्दना करते उसकी दष्टि उस प्रसन्नमूख तेजस्वी बालक पर पडी।बालक को भाग्यशाली समझकर उसने गोद में उठा लिया और उसे अपनी प्रिया को देकर कहने लगा-प्रिये ! यह कोई बड़ा पुण्य जीव है। आज अपना जीवन ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति से अनायास ही कृतार्थ हो गया। उसकी स्त्री भी बच्चे को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। बालक के हाथों में वज्र का चिज होने से उसका बजकुमार नाम रखा । इसके पश्चान वे दोनों मुनि को प्रणाम कर बच्चे को साथ लेकर अपने घर पर लौट गये।
वह वकुमार विद्याधर के घर पर शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ते हुए अपनी बाल लीलानों से सबको मानन्द देने लगा। दिवाकर देव के सम्बन्ध से वज्रकुमार का मामा कनकपुरी का राजा बिमलबाहन हुआ। अपने मामा के यहां रहकर वनकुमार थोड़े ही दिनों में शास्त्राभ्यास कर एक प्रच्छा विद्वान बन गया। उसका प्रतिभाशालिनी बुद्धि को देखकर सब प्राश्चर्य करने लगे।
एक दिन वजकुमार ह्रीमन्त पर्वत पर प्रकृति की शोभा देखने को गया हुआ था । वहीं पर एक विद्याधर की पुत्री पवनवेगा विद्या साध रही थी। विद्या साधते हुए ही एक तृण उसकी प्रौख में पड़ने से उसके चित्त की चंचलता के कारण विद्या सिद्ध होने में बड़ा विघ्न उपस्थित हुश्रा। इतने में ही वचकुमार इधर मा निकला। उसे ध्यान से विचलित देखकर उसने उसकी आँख में से तिनका निकाल दिया। पवन धेगा स्वस्थ होकर फिर विद्या साधने में तत्पर हो गई। मंत्रयोग पूरा होने पर जब विया सिद्ध हो गई, तब वह समस्त सपकार वकाकूमार का समझकर उसके पास प्राकर कहने लगी-मापने मेरा जो उपकार