________________
११८
णमोकार च
शीत, उष्णादि की बाधा से प्रत्यन्त दुःखी हैं। दो इन्द्रिय योनि दो लाख, तीन इन्द्रिय दो लाख, चौ इन्द्रिय दो लाख ये सब छह लाख विकलत्रय योनि हैं और चार लाख पंथेन्द्रिय तिर्यंच योनि हैं, ऐसे समस्त बासठ लाख तियेच योनि जो ताड़न मारन, छेदन, भेवन, खनन, तापन, बधबंधन, भारारोपण, खान, पान, प्रादि विरोध से महाःदुखी हैं नारकी योनि चार लाख जो प्रगट रूप में महा दुःख रूपही हैं । देव योनि चार लाख जो नाम मात्र सुखाभास को ही सुख मानती है. वास्तव में वह दुख ही है। पराई सेवा अथवा पराया वैभव देखकर जलना मादि महान दुःख देवों में हैं और बौदह लाख योनि मनुष्य जिनमें कोई दरिद्रता से, कोई रोगों से, कोई सन्तान के न होने से, कोई स्त्री.. पुत्रादि के वियोग से, कोई शत्रुषों से, प्रत्यन्त दुखी है अर्थात् प्रत्येक जीव को कोई न कोई दुःख लगा हुमा है। इसमें कोई भी सुली नहीं है इस प्रकार मनुष्य को इन चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना है प्रतः संसार को दुखमय चितवन कर उसमें समिकई करना देगार प्रेश !
४. एकस्वानुप्रेक्षा
यह जीव पकेला स्वयं ही जन्मता है और स्वयं ही मरता है, अकेला ही नरक की वेदना सहता है, तिर्यच व मनुष्य गति में नाना दुःख है । अपना पुत्र, अपनी स्त्री कोई भी दुःख के साथी नहीं हो सकते अर्थात् दुःख नहीं बटा सकते और न कोई साथ ही प्राने-जाने वाले हैं। अपने शुभाशुभ बांधे हुए कर्मों का सुख-दुख रूप फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। दूसरा कोई साथी नहीं होता है। फिर किसके प्रेम में फंसना ? स्वयं प्रात्म कल्याण में पुरुषार्थ करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अपने को निःसहाय एकाको चितवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है ।
५. अन्यत्वानुप्रेक्षा
जब अपनी मात्मा से शरीर ही भिन्न है तो कुटुम्बी नातेदार, पुत्र, मित्र, धन, धान्य मादि अन्य सब पदार्थ तो प्रत्यक्ष रूप से भिन्न ही हैं जो क्षण भर में किंचित वैमनस्यता होने पर अपने से बिगड़ जाते हैं फिर किससे स्नेह करना और वृथा किसके लिए पापोपार्जन करना? जगत में सब संबन्ध मतलब का है अतः प्रात्महित करना ही श्रेष्ठ है ऐसा चितवन करते हुए इनसे संबंध नहीं बाहना अन्यत्वमनुप्रेक्षा है।
६. पशुचिस्यानुप्रेक्षा
यह शरीर अस्थि, मांस मज्जा, रक्त, मल, मूत्र प्रादि अपवित्र पदार्थों से भरा हमा है। धर्म की चादर से ढका हुना सुन्दर दीखता है । जिस शरीर के नव द्वारों से चिस को घृणाकारी मल-मूत्र मादि अशुचिता बहती है इससे अधिक अपबित्रकौन है। इससे प्रेम करना वृथा है । यदि यह पवित्र है तो मात्मा के सम्बन्ध से हो है। जीव के निकलते ही इसे स्पर्श करने पर स्नान करते हैं तो ऐसे मलिन से । स्या प्रेम करना । इस प्रकार शरीर के स्वरूप का चितवन कर राग भाव घटाना पशुचित्वामुक्षा है।
७. प्रामानुप्रेक्षा
मिथ्यात्व, मविरत, कषाय मौर मन, वचन, काय के योगों द्वारा फर्मों का मानव होता है पौर वह कर्म बंध होकर प्रात्मा को संसार में परिभ्रमण का कारण होता है । प्रतएव पास्त्रव के निरोष के लिए उसके मुख्य कारण कषायों को रोकना पास्त्रबानुभक्षा है ।