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णमोकार ग्रंप
दस ने पिता-पुत्री के मिलाप हो जाने की खुशी में जिन भगवान् का. रथ निकलवाना और बहुत दान दिया । प्रियदत्त जब घर चलने को तैयार हुषा तब पुत्री से भो चलने को कहा। बह वोलो पिताजो मैंने संसार को लोला बहुत देखो है । अत्र उसे देखकर मुझे बहुत अब लगता है। इससे मैं अब घर नहीं चलूंगी । अब तो पाप मुझे जंन दीक्षा दिला दीजिए 1 पुत्रो को बात सुनकर जिनदत्त ने कहा कि हे पुत्री! जिनदीक्षा पालन करना अत्यन्त कठिन है और तेरा यह शरीर अत्यन्त कोमल है। अत: कुछ दिन घर ही में रहकर अभ्यास कर और धर्मध्यान में समय बिता। पीछे दीक्षा ले लेना। इत्यादि वचनों से रोका किन्तु उसके राम-रोम में वैराग्य प्रवेश कर चुका था। इससे वह कब रुकती ? उसो समय मोहजाल तोड़कर पद्मश्री प्रायिका के निकट जाकर जिनदीक्षा ले ली। दीक्षित होकर पक्षमासोपवासादि दारुण तप करने तथा धोर परीषह सहन करने लगी । अन्त में पंचपरमेष्ठी का स्मरण करती हुई संन्यास विधि से मरण कर सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुई व वहां पर नित्य नये रत्नों के स्वर्गीय आभूषण पहननो है। हजारों देव-देवांगनायें जिनकी सेवा में रहते हैं उसके ऐश्वर्य का पार नहीं और न उसके सुख की ही सीमा है । वह सदा श्री जिनेन्द्र भगवान को भक्तिपूर्वक पूजा करती है और उनके चरणों में लीन रहकर बड़ो शांति के साथ अपना समय गतीत करती है। सच तो यह है कि पुण्य के उदय से क्या-क्या नहीं होता? इससे आत्महितेच्छु भव्य पुरुषों को चाहिए कि वे सांसारिक सुख की प्रतादि शुभाचरण करते हुए भी उनके उदय जनित शुभाकर्मों की बांछा नहीं करनी चाहिए। जिस पुरुष के भोग की अभिलाषा न हो सो नि:कांक्षित अंगयुक्त है । देखो अनंतमती को उसके पिता ने केवल विनोदवश शीलवत दे दिया था । पर उसने उसको बड़ी दृढ़ता क साथ पालन किया । कर्मों के पराधीन सांसारिक सुख की उसने स्वप्न में की अभिलाषा नहीं की। उसके प्रभाव से वह स्वर्ग में जाकर देव हुई। स्वर्ग के सुख का पार नहीं है । इसलिए भव्य पुरुषों को सम्यग्दर्शन के निःकाक्षित गुण का अवश्यमेव पालन करना चाहिए ॥२॥
इति श्री निःकांक्षितांगे अनंतमती कथा समाप्तः ।।
प्रथ तृतीय निविचिकित्सा अंगस्वरूप वर्णन ॥३॥ अपने में उत्तम गुणों से युक्त समझकर व अपने को श्रेष्ठ मानकर दूसरे के प्रति अवज्ञा, तिरस्कार व ग्लानिरूप भाव होना विचिकित्सा या ग्लानि है । यह दोष मिथ्यात्व के उदय से होता है । इसके बाह्य चिह्न इस प्रकार हैं--किसी दीन, दरिद्री, विकलांग रोगी को देखकर निदा, ग्लानि, तिरस्कार, निरादर व उपहास आदि करना । सम्यग्दृष्टि जीव विचारता है कि कर्मों के उदय की विचित्र गति है। कदाचित् पाप का उदय आ जाय तो क्षणमात्र में धनी से निर्धन, रूपवान्, कुरूप, विद्वान से पागल, कुलवान् से पतित मोर स्वस्थता से रोगी हो जाते हैं । इससे वह दूसरों को होनबुद्धि से नहीं देखता और ऊपर से अपवित्र शरीर पर ध्यान नहीं देकर अंतरंग गुणों को देख शान, चरित्रादि ग्लानियुक्त होते हुए भी जुगुप्सा रहित सेवा सहायता करता है । यही निविचिकित्सा गुण है । अव उदाहरणार्थ सम्यग्दर्शन के तीसरे निविचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध होने वाले उद्दायन राजा की कथा लिखते हैं । इसी भरत क्षेत्र में कच्छ देश के अन्तर्गत रोरवक नामक बहुत सुन्दर नगर था । उस नगर के राजा उदायन सम्यग्दृष्टि थे। वे बड़े धर्मात्मा. विचारशील, जिन भगवान् के चरण कमलों के भंवर और सच्चे भक्त थे। आप राजनीति के अच्छे विद्वान्, तेजस्वी और दयालु थे। वे दुराचारियों को उचित दण्ड देते और प्रजा का नोतिपूर्वक पालन करते थे। इससे प्रजा का उन पर बहुत प्रेम था। और वे भी सदा प्रजा हित में उद्यत रहा करते थे। उनकी रानी का नाम पद्मावती था। वह भी सती, धर्मात्मा और दयालु थी। उनका मन सदा