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जमोकार पुष
नमस्कार किया । पर भव्यसेन मुनि ने अभिमानवश चन्द्रप्रभ को धर्म-वृद्धि तक नहीं दी। ऐसे अभिमान को धिक्कार है कि जिन अविचारियों के वचनों में भी दरिद्रता है । बहुत ठीक कहा है
'यत्र वामयेऽपि दारिद्रयमविवेक विकलात्मनि ।
प्रापूर्णक किया तत्र स्वप्ने स्यावपि दुर्लभा।' जिन अविवेकी पुरुषों के आए हुए अतिथि का वाचनिक सत्कार करने में भी दरिद्रता है तो उनसे और सत्कार सादर होना तो स्वप्न में भी दुर्लभ है । जैन शास्त्रों का ज्ञान सब दोषों से निर्दोष है, उसे प्राप्तकर हृदय पवित्र होना ही चाहिए गरन्तु अध्यान लेक के पास कहना इसा है कि उसके प्राप्त होने पर भी मान प्रकट होता है । पर यह शास्त्र का दोष नहीं, किन्तु यों कहना चाहिए कि
'सत्यं पुण्यविहीनानाममृतं च विजायते' अर्थात् पापियों के लिए अमृत भी विष हो जाता है जैसे उत्तम गौदुग्ध सर्प के मुख में गया हुआ विषरूप ही हो जाता है। जो भी हो, फिर भी यह देखना चाहिए कि इनमें कितना भव्यपना है या केवल नाम मात्र के ही भव्य सेन हैं, ऐसा विचारकर जब दूसरे दिन प्राप्तः काल भव्यसेन मुनि कण्डल को लेकर शौच से निवत होने के लिए वहिमि जाने लगे तब चन्द्रप्रभ क्षुल्लक भी उनके पीछे-पीछे हो लिए। आगे चलकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने अपने विद्याबल से भव्यसेन के अग्रभाग की भूमि को कोमल और हरे-हरे तृणों से युक्त कर दिया तब मध्यसेन ग्रागे को भूमि को कोमल तृणांकुरों से अच्छादित देखकर यह विचारने लगे कि जिनागम में तो इनको एकेन्द्रिय जीव कहा है, इनकी हिंसा का विशेष पाप नहीं होता है, यह सोचकर उनकी कुछ परवाह न करते हुए उन पर से निकल गए । आगे चलकर जब वे शौच से निवृत्त हो चुके तो तब शुद्धि के लिए कमण्डलु की पोर देखा तो उसमें जल का एक बूंदु भी नहीं मिला, वह आँधा पड़ा हुआ था। तब तो इनको बहुत चिंता हुई। इतने में ही एकाएक क्षुल्लक जी भी वहां आ पहुंचे। कमण्डलु का जल यद्यपि क्षुल्लक महाराज ने ही प्रपनी विद्या के बल से सुखाकर उसे प्रौधा गिरा दिया था। तथापि वे बड़े पाश्चर्य के साथ बोले- मुनिराज आगे चलकर कुछ दूरी पर एक निर्मल जल का सरोवर भरा हुआ है। वहीं पर जाकर शौच शुद्धि कर लीजिए। भच्यसेन अपने पद के कर्तव्य का कुछ भी ध्यान न रखते हुए जैसा क्षुल्लक ने कहा वैसा ही कर लिया । सच बात तो यह है कि
कि करोति न मूढ़ास्मा कार्य मिथ्यात्वदूषितः । न स्यान्मुक्तिप्रदंशानं पारिनं दुर्दशामपि । उदगतो भास्करश्चापि कि घुकस्य सुखायते । मिथ्यावृष्टे: श्रुतं शास्त्र कुमार्गाय प्रवर्तते ।
यथा मष्टं भवेत्कष्टं सुबुषं सुम्बिकागतम् । अर्थात् मूर्ख पुरुष मिथ्यात्व के वश होकर क्या निषिद्ध कार्य नहीं करते हैं । इन मिथ्यात्वदूषित पुरुषों के ज्ञान और चारित्र मोक्ष का कारण नहीं होते। जैसे सूर्य का उदय उल्लू को सुख का कारण नहीं होता। मिथ्या श्रद्धानियों का शास्त्र श्रवण करना, शास्त्राभ्यास करना कुमागं में ही प्रवर्ताने का कारण है जैसे मीठा दूध भी बड़ी के सम्बन्ध से कड़वा हो जाता है। इस प्रकार विचारकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने भव्यसेन मुनि का प्राचरण समझ लिया कि नाममात्र के जैनी हैं। वास्तव में इनका जैनधर्म पर श्रवान नहीं । ये मिथ्यात्वी हैं। उस दिन से चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने मध्यसेन का नाम अभव्यसेन रखा । सत्य बात है कि दुराचार से क्या-क्या नहीं होता। इस प्रकार भुल्लक चन्द्रप्रभ ने भव्यसेन की