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णमोकार ग्रंथ
जैसे पापी लोग बहुत ही शीघ्रता से नाश को प्राप्त हो जाते हैं । तुम्हें उचित है कि तुम बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्म को इस प्रकार अनर्थों में न लगाकर कुछ ग्रात्महित करो।' इस प्रकार श्रीर भी भव्य पुरुषों को दुर्जनों के मलिन कर्मों से निंदा को प्राप्त होने वाले सम्यग्दर्शन की रक्षा करना योग्य है । जिन भगवान् का शासन पवित्र है निर्दोष है, उसे जो सदोष बनाने का प्रयत्न करता है, वह मूर्ख है, उन्मत्त है। ऐसा ठीक भी है क्योंकि उनको वह निर्दोष, पवित्र जैन वर्म अच्छा जान भी नहीं पड़ना जैसे पित्तज्वर वाले को अमृत के समान मीठा गोदुग्ध भी कड़वा ही लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग का जिनेन्द्र भक्त ने पालन किया उसी प्रकार अन्य भव्य पुरुषों को भी अवश्य उपगूहन अंग का पालन करना चाहिए ।
इति उपगूहनाङ्गे जिनेन्द्रभक्तस्य कथा समाप्ता ।
॥ मथ स्थितिकरण अंग वर्णन प्रारम्भः ॥
कर्म के उदयवश किसी कारण से स्वयं को था पर को धर्म से शिथिल होते हुए देखे तो उस समय जिस तरह बने उस तरह धर्म में दृढ़ तथा स्थिर करना स्थितिकरण है । सम्यग्दृष्टि को उचित है कि चित्त चलायमान होने वाले को धर्मोपदेश देकर दृढ़ करे । निर्धन को धन, प्राजीविका देकर, रोगी को औषध देकर भगवान को निर्भय कर धर्म में लगाए । सम्यग्दर्शन के इस स्थितिकरण गुण पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले वारिषेण मुनि की कथा इस प्रकार है
भगवान् के पचकल्याणकों से पवित्र और संसार श्रेष्ठ वैभव के स्थान भारतवर्ष में मगध नाम का एक देता है ! उसके सन्त राम नाम का एक सुन्दर और प्रसिद्ध नगर है। उसकी सुन्दरता संसार को चकित करने वाली है। नगर निवासियों के पुण्योदय से वहाँ के राजा श्रेणिक बड़े गुणी थे । वह सम्यग्दृष्टि उदार धर्म प्रेमी और राजनीति के अच्छे विद्वान थे। उनकी महारानी का नाम चेलना था। वह भी सम्यक्त्व रूपी श्रमूल्य रत्न से भूषित थी । वह बहुत सुन्दर, बुद्धिमती सती सरल स्वभाव वाली और विदुषी थी। वह सदा दान देती और जिन भगवान की पूजा करती थी, बड़ी श्रद्धा के साथ उपवास, स्वाध्याय करती थी और पवित्रचित्त थी । उसके वारिषेण नाम का एक पुत्र था। वारिषेण बहुत गुणी श्रावकधर्म प्रतिपालक और धर्मप्रेमी था। एक दिन मगधसुन्दरी नाम की एक वेश्या राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करने को आई हुई थी। उसने वहां श्रीकीति नामक सेठ के गले में एक बहुत ही सुन्दर रत्नों का हार पड़ा हुआ देखा, उसे देखते हो मगवसुन्दरो उस हार पर मुग्ध हो गई, उस हार के प्राप्त किये बिना उसको अपना जीवन व्यर्थ प्रतीत होने लगा । समस्त संसार उसे हारमय दिखाई देने लगा । वह उदास मुख होकर अपने घर पर लौट आयी। जब रात्रि के समय उसका प्रेमी विद्युत चोर उसके घर पर श्राया, तब वह मगधसुन्दरी का उदास मुख देखकर बड़े प्रेम के साथ पूछने लगा हे प्रिय ! मैं आज तुमको उदास मुख देख रहा हूं। इसका क्या कारण है, मुझे सत्य सत्य बताइये क्योंकि तुम्हारी यह उदासी मुझे अत्यंत दुःखी कर रही है। तब मगधसुन्दरी ने विद्युत् चोर पर कटाक्ष बाण चलाते हुए कहा प्राणवल्लभ ! तुम मुझ पर इतना प्रेम करते हो, पर मुझको तो जान पड़ता है कि यह सब तुम्हारा दिखाऊ प्रेम है धौर यदि तुम्हारा मुझ पर सच्चा प्रेम है तो श्रीकीर्ति के गले का हार जिसे कि आज मैंने बगीचे में देखा है, लाकर मुझे दीजिये, जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो। वह हार बहुत ही सुन्दर है । मेरा तो विश्वास है कि वह, अद्वितीय हार एक ही है। आप यदि उसे लाकर दें तभी मैं समभूंगी कि आप मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं और तब ही मेरे प्राणवल्लभ होने के अधिकारी हो सकेंगे, अन्यथा नहीं ।