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णमोकार ग्रंथ
१३६ उसी तरह सुपात्र के दान का योग भी पापियों को नहीं मिलता। इस प्रकार अपनी आत्मनिंदा कर अपने प्रमाद पर बहुत-बहुत खेद और पश्चाताप करते राजा-रानी ने मुनि का सब शरीर प्रासुक जल से धोकर साफ किया। उनकी इस प्रकार अचल भक्ति को देखकर देव अपनी माया समेटकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बोला कि हे राज राजेश्वर ! आपके विचित्र और निर्दोष सम्यक्त्व की तथा निविचिकित्सा अंग के पालन करने को अपने सभामंडप के मध्य धर्मोपदेश देते हुये सोधर्मेन्द्र ने धर्मप्रेमवदा होकर प्रशसा की थी वैसी अक्षरशः ठोक निकली। संसार में आप का ही मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है। तुम यथार्थ सम्यग्दृष्टि और महादानी हो । वास्तव में तुम्हीं ने जैन शासन का रहस्य समझा। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनि की दुर्गन्धित उधान्त को अपने हाथों से साफ करता? राजन् ! तुम धन्य हो । शायद ही इस भूमंडल पर इस समय आप जैसा सम्यम्दष्टियों में शिरोमणि कोई होगा। इस प्रकार वासव नामक देव उहायन की प्रशंसा करता हया अपने स्थान पर चला गया। प्रथानन्तर राजा फिर अपने राज्य का शांति और सुखपूर्वक पालन करते हुये दान, पूजा, नत स्वाध्यायदि धार्मिक कार्य में अपना समय व्यतीत करने लगे। इसी तरह प्रानन्द पूर्वक निर्विघ्न राज्य करते-करते उद्दायन का कुछ और समय व्यतीत हो गया । एक दिन वह अपने महल पर बैठे हुये प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा उनके नेत्रों के सामने से निकला। वह थोड़ी सी दूर पहुंचा होगा कि एक प्रबल वायु के वेग ने उसे देखते-देखते नाम शेप कर दिया।क्षण भर में एक विशाल मेघखंड की यह दशा देखकर उद्दायन की अखं खुल गई । और अब उन्हें सारा संसार ही क्षणिक भासने लगा। प्रयोजन यह है कि उनके हृदय पर वैराग्य ने अपना अधिकार कर लिया। चित्त में विचारने लगे कि स्त्री, पुत्र, भाई, बंधु, धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चांदी आदि जितने चतन अचेतन पदार्थ है वह सब विद्युत् प्रकाशवत् क्षण भर में देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं और संसार दुःख का समुद्र है । यह शरीर भी जिसे रात-दिन प्यार किया जाता है वह भी मजा, अस्थि, मांस तथा रक्तादि अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है । ऐसे अपावन क्षण भंगुर शरीर से कौन बुद्धिमान् प्रेम करेगा? ये पांच इन्द्रियों के विषय ठगों से भी बढ़कर ठग हैं । इनके द्वारा ठगा हुआ प्राणी एक पिशाचिनी की तरह उनके वश होकर अपनी सब सुधि भूल जाता है। ये जैसा नाच नचाते हैं वैसा ही नाचने लगता है । इस प्रकार संसार शरीर भोगादिक की अनित्यता विचारता हुआ उसी समय महल से उतरकर अपने पुत्र को बुलाया और उसके मस्तक पर राजतिलक करके आप अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान के समवशरण में पहंचे और भक्ति पूर्वक भगवान् के चरणारविंद की पूजा कर उनके चरणों के निकट ही उन्होंने जिन दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसका इन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्ती प्रादि सभी आदर करते हैं । दीक्षित होकर उद्दायन राजा कठिन से कठिन तपश्चरण करते हुये वैराग्य के साथ क्रमशः रत्नत्रय की पूर्णता कर वारहवें गुणस्थान के अंत घातिया कर्मों के प्रभाव से प्रादुर्भूत लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर इंद्र धरणेन्द्र चवादि द्वारा पूज्य हुये । उसके द्वारा उन्होंने मुक्ति का मार्ग बतलाकर अंत में प्रघातिया कर्मों का नाश कर अविनाशी, अनंत मोक्षपद को प्राप्त किया। उन स्वर्ग मोक्ष सुख को देने वाले श्री उद्दायन केवली को हम भक्ति पूर्वक बारम्बार नमस्कार और पूजन करते हैं। वे हमें भी मोक्षपथ में लगाकर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी प्रदान करें और उनकी रानी सती प्रभावती भी उस समय ही दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करती और भनेक प्रकार की परीषह सहन करती हुई प्रायु के अंत में समाधिमरण कर ब्रह्म स्वर्ग में जाकर देव हुई । जिस प्रकार उद्दायन मुनिराज ने सम्यग्दर्शन के तीसरे निविचिकित्सा अंग को पालन कर प्रकाशित किया उसी तरह सभी भव्य पुरुषों को भी करना उचित है । वह अनुपम सुख प्रदान करने वाला है।
इति निविचिकित्सांगे श्रीमदायनस्थ कथा समाप्ता।