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णमोकार ग्रंथ
उन्हीं पुरुषों में से एक होंगे। अनंतमती ऐसे कुल कलंकी पुरुषों के सन्मुख होना उचि न समझ कोष को शांत करके चुप होकर बैठ गई । इसकी जली-भुनी बातों को सुनकर पुष्पक सेठ क्रोध के मारे भीतर दबी हुई ग्रग्नि को तरह दग्ध होने लगा। उसका चेहरा लाल सुखं पड़ गया, प्रांखों से क्रोध के मारे चिनगारियाँ निकलने लगी और समस्त शरीर कांपने लगा । परन्तु तब भी तेजोमयी मूर्ति अनंतमती के दिव्य तेज के सम्मुख उससे कुछ न बन पड़ा। उसने अपने क्रोध का बदला अनंतमती से इस प्रकार चुकाया कि उसे अपने नगर में ले जाकर एक कामसेना नाम की कुट्टनी के हाथ सौंप दिया । सच बात तो यह है कि यह सब दोष किसे दिया जा सकता है ? अर्थात् किसी को नहीं। क्योंकि कर्मों की ही ऐसी विचित्र गति है । जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही भोगना पड़ता है ।
यथोक्तं प्रवश्यं भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभम् । अर्थात् जो जैसा शुभाशुभ कर्म करता है। उसको तज्जनित शुभाशुभ फल अवश्य भोगना पड़ता है। फिर इसके लिए को कोई नई बात नहीं है । कामसेना ने भी अनंतमती को जितना उससे बना उसने भय और लोभ से पवित्र मार्ग से पतित कर सतीत्व धर्म से भ्रष्ट करना चाहा, पर अनंतमती रंचमात्र भी नहीं डिमी | वह सुमेरु पर्वत के समान निश्चल रही । अन्त में कामसेना ने अपना अस्त्र उस पर चला हुआ न देखकर उसे सिहराज नामक राजा को सौंप दिया। वह दुरात्मा भी अनंतमती के मनोहर रूप को देखकर मुग्ध हो गया । उसने भी जितना उससे हो सका उतना प्रयत्न अनंतमती के चित्ताकर्षण करने को किया, पर अनंतमती ते उसकी ओर ध्यान न देकर उसको भी फटकार दिया। अन्त में पापी सिहराज ने अनंत पती पर बलात्कार करने के लिए ज्योंही अपना पैर आगे बढ़ाया त्यों ही वनदेवी उपस्थित होकर कहने लगी कि खबरदार इस सतीदेवी का स्पर्श भूलकर भी मन करना नहीं तो समझ लेना तेरे जीवन का कुशल नहीं । यह कह कर बनदेवी संतति हो गई । बहु देवी को देखते ही भय के मारे चित्र लेखवत् निश्चेष्ट रह गया। कुछ समय के बाद सावधान होकर उसी समय सेवक के द्वारा श्राज्ञा दी कि इसे भयंकर वन में छोड़ आओ । उस निर्जन वन में वह पंचपरमेष्ठी का स्मरण करती और फल फूलादि से निर्वाह करती हुई अयोध्या जा पहुंची। वहाँ पर उसे पद्मश्री प्रायिका के दर्शन हुए। प्रायिका ने अनंतमली से उसका परिचय पूछाउसने अपना सब वृत्तांत सुना दिया। श्रार्थिका ने उसकी कथा से दुःखित होकर उसे एक सत शिरोमणि समझकर अपने पास रख लिया। उधर प्रियदत्त अपनी पुत्री के वियोग से दुःखी होकर तीर्थयात्रा के निमित्त से पुत्रो को ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ा। बहुत-सी यात्रा करते-करते वह अयोध्या जा पहुंचा और वहीं पर स्थित अपने साले जिनदत्त के घर पर ठहरा। उसने अपने बहनोई की सादर सेवा की। पश्चात् स्वस्थता के समाचार पूछने पर प्रियदत्त ने समस्त घटना कह सुनाई। यह सुनकर जिनदत्त बहुत दुःखी हुआ। दुःख सभी को हुआ पर कर्म की विचित्रता को देखकर सभी को संतोष करना पड़ा। दूसरे दिन प्रातःकाल जिनदत्त तो स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन कर श्री जिनमंदिर में चला गया। इधर इसकी स्त्री भोजन तैयार कर पद्मश्री भायिका के निकट स्थित बालिका को भोजन करने और चोक पूरने के लिए बुला लाई । यह कन्या भोक पूर कर भोजन करके अपने स्थान पर वापिस चली भाई। जब दोनों जिन भगवान् की पूजा कर घर पर प्राये तब प्रियदत्त चौक को देखते ही अनंतमत का स्मरण कर और कहा कि जिसने यह चौक पूरा है क्या मुझ प्रभागे को उसके दर्शन होंगे ? जिनदत्त अपनी स्त्री से पता पूछ कर उसी समय उस बालिका को अपने घर पर बुला लाया। उसे देखते ही प्रियदत्त के नेत्रों से
पड़ा
सू बह निकले। उसका हृदय भर श्राया और बड़े प्रेम के साथ अपनी प्यारी पुत्री को छाती से लगाकर सब बातें पूछनी प्रारम्भ की। उस पर बीती हुई घटनाओं को सुनकर प्रियदत्त बड़ा दुःखी हुआ। जिन