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णमोकार मंथ
परन्तु उसे अनामती के बिना कब न पड़ सकता था? इसालये वह अपने विमान को बहुत शीघ्रता से अपने कुण्डलपुर नगर को लौटा ले गया और वहाँ राजमहल में अपनी प्रिया को छोड़ कर उसी समय तीव्र गति से गमन कर अनन्तमती के बगीचे में पा उपस्थित हुआ और बड़ी फुर्ती से उस भोली बालिकाको बलात् विमान में विठलाकर चल दिया। इधर इसकी प्रिया को भी इसके दुष्कर्म का कुछ-कुछ अनुमान लग गया था। इसलिये कुण्डलमण्डित तो उसे घर पर छोड़कर पाया था, पर वह घर पर न ठहरकर गुप्त रूप से उसके पीछे पोछे चल पड़ी थी। जिस समय कुण्डलमण्डित अनन्तमती को लेकर आकाश मार्ग में जा रहा था कि उसकी दृष्टि अपनी प्रिया पर पड़ी। पत्नी को क्रोधावेश से लाल मुख किये हुए देखकर कुण्डलमण्डित के शरीर में अचानक एक साथ शीतलता पड़ गई। उसके शरीर को काटो तो खून नहीं । ऐसी स्थिति में उसने अधिक गोलमाल के होने के भय से बड़ी शीघ्रता के साथ अनन्तमती को एक पर्णलघ्त्री नाम की विद्या के आधीन कर उसे एक भयंकर वन में छोड़ देने की शाजा दे दी और स्वयं अपनी प्रियपत्नी को साथ लेकर अपने राजभवन का मार्ग लिया और अपनी निर्दोषता का उसके सम्मुख यह प्रमाण दे दिया कि अनन्त मती को न तो विमान में और न पर्णलध्वी विद्या को सुपुर्द करते समय ही उसने (पत्नी) देखा। उस भयंकर वन में अनन्तमती अति उच्च स्वर से रुदन करने लगी, लेकिन उस भयानक निर्जन अटवी में उसके रुदन के शब्द को सुनता भी कौन था । वह कोसों तक मनुष्य के संचार से रहित थी। देवयोग से कुछ समय के पश्चात एक भीलों का राजा शिकार खेलता हा उधर आ निकला। रुदन का शब्द सुनकर वह उस के निकट गया और अनन्तमती की स्वर्गीय सुन्दरता का देखकर वह भाकामबाण के वशीभूत हो गया। अनन्तमती ने अपने विचार किया कि आज मुझको देब ने इसको सुपुर्द करके मेरी रक्षा की है और अब मैं अपने पिता के घर पहुंचा दी जाऊँगी । परन्तु उसकी यह समझ ठीक नहीं थी, क्योंकि उसको तो छुटकारे की जगह दूसरी आपत्ति ने पाकर घेर लिया। वह भीलपति अपने महल में ले जाकर बोला कि हे बाले ! आज तुमको अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि एक राजा तुम पर मुग्ध होकर तुम्हें अपनी पटरानी बनाना चाहता है। प्रसन्न होकर तुम उसकी प्रार्थना को स्वीकार करो और अपने स्वर्गीय समागम से उसके हृदय में जलती हुई इच्छारूप कामाग्नि को शमन के हाय जोड़े खड़ा है अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिये तुमसे वर मांगता है। उसकी नम्रता पर ध्यान देकर उसकी प्राशा पूरी करो। वह बेचारी भोली-भाली अनन्तमती उसकी बातों का क्या उत्तर दे सकती थी? वह अधीर होकर फूट-फूट कर उच्च स्वर में रुदन से आकाश-पाताल को एक करने लगी। पर उसके रुदन को सुनता भी कौन था? वह तो राज्य ही मनुष्य जाति के राक्षसों का था। निर्दयी दरात्मा भीलपति के हृदय में कामवासना वसी हुई थी। उसने और भी बहुत प्रार्थना की। विनय अनुनय किया, पर अनन्तमती के चित्त को अपने पर किंचित मात्र भी ध्यान दिया हुआ न देखकर उसने दिल में समझा कि यह नम्रता तथा विनयपूर्वक कहने से वश में नहीं पाती। अतः अब इसको भय दिखलाना चाहिये। इस विचार से अपने साध्य की सिद्धि के लिए उसने अनेक प्रकार का भय दिखलाया। पर अनन्तभती ने फिर भी उस पर ध्यान नहीं दिया। किन्तु यह सोचकर कि इन नारकियों के सम्मुख सदन करने से कुछ काम नहीं चलेगा, अतः उसने उसे फटकारना शुरू किया। उसके नेत्रों से क्रोधरूप अग्नि को चिनगारियां निकलने लगीं। उसका मुख क्रोध के मारे संध्या के बादलों के समान रक्तवर्ण हो गया। पर इतना होने पर भी उस भीलपति के हृदय में कुछ भी प्रभाव न पड़ा। उसने प्रमन्तमती पर बलात्कार करना चाहा । इतने में उसके पुण्य प्रभाव से नहीं किन्तु प्रखंड शील के प्रभाव से उसी समय