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णमोकार ग्रंथ
अत्यन्त भक्ति और विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया और बोला कि हे दया के सागर ! मैंने प्रापकी कृपा से प्राकाशगामिनी विद्या तो प्राप्त की, परन्तु अब आप कृपा करके कोई ऐसा मंत्र बतलाइये जिससे कि मैं इस दुस्तर संसार सागर से पार होकर भ्रष्ट कर्मों के प्रभाव से अनन्त, अविनाशी, प्रात्मिक सुख को प्राप्त हो जाऊँ, अर्थात् सिद्धपद को प्राप्त हो जाऊं । अन्जन चोर की इस प्रकार वैराग्य सूचक वार्ता श्रवण कर परोपकारी जिनदत्त ने उसे एक चारण ऋद्धिधारक मुनिराज के पास ले जाकर मोक्षपद को प्रदान करने वाली जिनदीक्षा दिलवा दी। अन्जन चोर साधु पद का धारी होकर ईर्ष्या समिति पूर्वक धीरे-२ गमन करता हुआ कुछ काल में कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा । यहाँ पर घोराघोर तपश्चरण कर द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से बारहवें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञज्ञान प्राप्त किया। जिससे त्रैलोक्य द्वारा पूज्य होता हुआ अन्त चार प्रघातिया कर्मों का भी नाश कर अन्जन मुनिराज ने सदा के लिये श्रजर, अमर, अनंत, अविनाशी श्रात्मिक लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया ।
भावार्थ -- प्रन्जन मुनि ने चारों प्रघातिया कर्मों का प्रभाव करके ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक ही समय में लोक के अग्रभाग ( अन्त) में जाकर अजर, अमर, शान्तिरसपूर्ण स्वाधीन श्रानन्दमय fear को प्राप्त किया। सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग का पालन कर जब अन्जन चोर निरंजन होकर कर्मों के नाश करने में समर्थ हुआ इससे भव्य पुरुषों को तो अवश्य निःशंकित अंग का पालन करना चाहिये ।
इति निःशंकित गेऽन्जन चोरस्य कथा समाप्तः ॥ १॥
मथ द्वितीय निःकामित अंगस्वरूप :
विषय भोगों की इच्छा करना श्राकांक्षा तथा बांछा है। ज्ञानी पुरुषों को जब तक सांसारिक पदार्थ की चाह है तब तक वे मोक्ष से विमुख हैं। गले में शिला बाँधकर विस्तृत नदी के पार जाना चाहे तो प्रवश्य ही डूबेगा । ऐसे ही कांक्षावान् व्रती संसार में ही भ्रमण करेंगे। सम्यग्दृष्टि यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से परवश इन्द्रियों से उत्पन्न हुए सुखों का अनुभव करता है और चक्षु, रसना आदि इन्द्रियों के रूप रस प्रादि इष्ट पदार्थों का सेवन करता है, परन्तु वह अपने चित्त में यही समझता है कि अपने को अच्छा लगने वाले स्त्री प्रादिक विषय सुख त्याग करने योग्य हैं। कभी सेवन करने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि इनके सेवन करने से दुःख देने वाले अशुभ कर्मों का बंध होता है तथा रत्नश्रय रूप उपयोग के द्वारा अपने मात्मा से उत्पन्न हुआ नित्य अविनाशी मोक्ष सुख सदा ग्रहण करने योग्य है। ज्ञानी जीव इस प्रकार का श्रद्धान करता है कि मेरा आत्मा हाथ में दीपक लेकर अंधकूप में गिर रहा है, अतः मुझे बारम्बार धिक्कार है। इस प्रकार अपने बाप ही श्रात्मनिन्दा करता है और व्रतादि शुभाचरण करता हुआ भी उनके उदय जनित शुभफलों की बांछा नहीं करता, किन्तु उनको शान्त मोर दुःख से मिले हुए विषमिश्रित मिष्टान्नवत् हेय जानता हुप्रा श्रात्मस्वरूप के साधक जान सांसारिक सुख की इच्छा रहित प्राचरण करता है सरे निःकांक्षित भंग युक्त है ||२|| इस दूसरे निःकांक्षित गुण को प्रकाश करने वाली अनन्तमती की कथा लिखते हैं ।
अथ अनन्तमत्याः कथा - संसार में विख्यात अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी थी। उसके राजा बसुवर्द्धन थे और उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। वह सतीत्वगुण भूषित और बड़ी सरलहृदय श्री । उनके एक प्रियदत नामक पुत्र जिनधर्म पर पूर्ण विश्वास रखने वाला था। उसकी स्त्री का