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णमोकार ग्रंथ
नाम अंगवती था। वह सच्ची पतिभक्तिपरायणा, धर्मात्मा और सुशीला थी। अंगवती के एक अनन्तमती नामक पुत्री बहुत सुन्दर, रूपवान् और गुणों की खान थी। एक समय अष्टान्हिका पर्व पर प्रियदत्त ने धर्मकीर्ति मुनिराज के निकट पाठ दिन के लिये ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और साथ ही अपनी प्रियपुत्री अनन्तमती को भी विनोद के वश होकर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करा दिया। कभी-कभी सत्पुरुषों का विनोद भी सन्मार्ग का सूचक बन जाया करता है। अनन्तमती के अन्त:करण पर भी प्रियदत्त के दिलाये हुए ब्रह्मचर्य व्रत का ऐसा ही प्रभाव पड़ा। जब अनन्तमती के विवाह का अवसर पाया और उसके लिये प्रायोजन होने लगा तब अनन्तमती ने अपने पिताजी से सविनय पूछा कि हे पिताजी ! जब आप मुझको ब्रह्मचर्य व्रत दिला चुके हैं तब फिर यह विवाह का आयोजन आप किस लिए कर रहे हैं ? इसके उत्तर में प्रियदत्त ने कहा कि पुत्री ! मैंने तो तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया था वह केवल मेरा विनोद था। क्या तू उसे सत्य समझ बैठी है ? प्रियदत्त के ऐसे बाक्य श्रवण कर अनन्तमती बोली कि हे पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा, .: मैं नहीं समझी । पुनः प्रियदत्त ने कहा कि मेरे कुल की प्रकाशक प्यारी पुत्री मैंने तो तुझे ब्रह्मच! या कंबल दि से दिया था। तु उसे यथार्थ मान बैठी है तो भी वह पाठ दिन के लिए ही था। फिर तू अब विवाह के लिए क्यों इन्कार करती है ? अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! मैं मानती हूं कि आपने अपने भावों से मुझको केवल पाठही दिन का ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया होगा, परन्तु उस समय अट दिन नयन त के लिए न तो आपने ही प्रगट किया और न मुनिराज ने ही। तब मैं कैसे समझ कि वह केवल पाठ ही दिन के लिए था। इसलिए अब जैसा भी कुछ हो मैं तो अब जीवन पर्यन्त उसे पालुंगी। अब मैं किसी तरह भी ब्याह न कराऊँगी । अनन्तमती की वार्ता श्रवण कर प्रियदत्त को निराश होकर इस में अपने को अशक्त जानकर, अपने सभी विवाह के आयोजन को समेट लेना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अनन्तमनी के जीवन को धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिते उसके पठन-पाठन का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। अनन्तमती भी पूर्ण रूप से निराकुलित चित्त हो शास्त्रों के अभ्यास में परिश्रमपूर्वक समय व्यतीत करने लगी। इस समय अनन्तमती पूर्ण यौवन सम्पन्न है। उसने स्वर्गीय देवांगनाओं की सुन्दरता धारण की है। उसके अंग-अंग से लावण्य रूप सुधा का झरना बह रहा है। उसके अप्रतिम मुख की शोभा को देखकर चन्द्रमा का प्रकाश मन्द पड़ गया। और नखों के प्रतिबिंब के बहाने उसके पाँवों पड़कर अपनी इज्जत बचा लेने के लिए उससे प्रार्थना करता है। उसको बड़ी-बड़ी प्रफुल्लित आंखों को देखकर कमल बेचारे संकुचित हो ऊपर को भी नहीं देख सकते। उसके सुन्दर मधुर स्वर को सुनकर कोकिला मारे चिन्ता के काली पड़ने लगी और सिंहनी उसकी अनुपमता को देखकर निरभिमानी बन पर्वतों की गुफा में शरम के मारे गुप्त रूप से रहने लगी। यह अपनी दंतपंक्ति की श्वेतता से कुसुमावली की शोभा को जीतने लगी। इस प्रकार स्वर्गीय सुन्दरियों को भी पलभ्य रूपधारिणी घेत्र के महीने में विनोदवश अपने बगीचे में अकेली झूले पर झूल रही थी। उस समय विद्याधरों की दक्षिण श्रेणी के अन्तर्गत किन्नरपर नामक एक प्रसिद्ध प्रौर मनोहर नगर का अधिपति विद्याधरों का राजा कण्ठल-मण्डित अपनी प्रिया के साथ विमान में बैठा हुप्रा इसी मार्ग से जा रहा था। एकाएक उसकी दृष्टि बाग में अकेली झूला झूलती हुई अनन्तमती पर पड़ी । उसकी इस अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता को देखकर कुण्डलमण्डित का हृदय काम के बाणों से घायल हो गया। वह अनन्तमती की प्राप्ति के बिना अपने जीवन को व्यर्थ समझने लगा। यद्यपि वह उस बेचारी बालिका को उसी समय उड़ाकर ले जा सकता था, परन्तु साथ में अपनी प्रिया के होने से ऐसा अनर्थ करने के लिए उसका साहस न हो सका ।