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णमोकार प्रेम
१२५ हैं। विशेष शानी उपदेशवक्ता के प्रभाव से और अपनी बुद्धि की मन्दता से पदार्थ के सूक्ष्म स्वरूप को न जान सके तो ऐसे स्थल पर प्ररंहत शास्त्र रूप भगवान की प्राज्ञा को प्रमाण मानकर तप चिन्तवन करना आशा विचय धर्मध्यान है।
निरन्तर कर्म शत्रुनों के दूर करने और मोक्ष के कारण मानव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा जप, तप, शील, संयम, नियम, नतादिक चितवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
ज्ञातावरणानि बाट कर्मों का दव्य क्षेत्र काल, भाव के निमित्त से जो विपाक अर्थात् फल है उससे जो आत्मा की नाना प्रकार की सुखदुखादि रूप अवस्था होती है उसका निजस्वरूप से भिन्न उपाधिक कमजनित विचारते रहना विपाक विचय धर्मध्यान है।
प्रकृत्रिम लोक और उसके प्रधः, उर्ध्व, मध्य विभागों का तथा उसमें स्थित पदार्थों का और पंचपरमेष्ठी व निजात्मस्वरूप का चितवन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है । यह ध्यान शुभ और सुगति का कारण चौथे असंयत गुणस्थान से सांतवे अप्रमतसंपत गुणस्थान तक होता है। इस संस्थान विचय धर्मध्यान के पिंडस्थ,-पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत, चार भेद हैं।।
____लोक का माकार विचारकर दृष्टि संकोच जम्बूद्वीप का विचार करना, फिर क्रम से भरतक्षेत्र, पाय खण्ड, फिर निज देश, नगर, गृह, कोठा, फिर अपने पिड का ध्यान कर विचारना पिंहस्थ ध्यान है।
पंचपरमेष्ठी के वाचक पैतीस अक्षरों का, सोलह अक्षरों का, छ: अक्षरों का पांच अक्षरों का चार अक्षरों का, दो अक्षरों का, एक अक्षर का, णमो अरिहंताणं । णमो सिद्ध गं, णमो अइरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्यासाहणं (३५) अरहन सिद्ध प्रहरिया,. उवझाया साहु। (१६)। परहंत सिद्ध अथवा अरहतसिद्धा (६) असि मा उ सा (५), अरहंत (४) सिद्ध (२), (१) तया गुरु प्राशानुसार अन्य पदों का आश्रय लेकर जो ध्यान किया जाए उसको पदस्थ ध्यान कहते हैं ।
समवशरण में चार धातिया कर्म रहित, अनन्त चतुष्ठय संयुक्त, सप्तधातु रहित, परमौदारिक शरीर में स्थित और अष्टादश दोष रहित, गंधकुटी में स्फटिकमयी सिंहासन के मध्य अत्यन्त कोमल पवित्र, अनुपम, सहस्त्र दल वाले रक्त कमल की कणिका के मध्य में चार अंगुल अंतरिक्ष शांतस्वरूप श्रीजिनेन्द्र भगवान स्थित हैं। अपने मन में ऐसा प्ररहंत भगवान का स्वरूप क्रमशः मुक्त होने तक विचारना रूपस्थ ध्यान है। शुक्लध्यान वर्णन--
यह ध्यान प्रतीन्द्रिय कर्ता, कर्म, क्रिया तथा ध्यान, ध्याता, ध्येय के विकल्प रहित होता है। इसमें चित्तवृत्ति स्वस्वरूपाभिमुख होती है। इसके चार भेद हैं । पृथक वितर्क विचार, एकत्व वितर्क सूक्ष्म क्रिया प्रतिपरिश, और व्युपरत्त क्रिया निति ! इनमें प्रथम पाया पृथक वितंक विचार तीनों शुभ सहननों में प्रौर शेष तीन पाए वज. वृषभ. नाराच संहनन में ही होते हैं। आदि के दो भेद अंग पूर्व के पाठी श्रुत केवली के होते हैं। प्रागे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और न्युपरतक्रिया निवति ये दो शुक्ल ध्यान सगोग केवली और प्रयोग केवली के होते हैं । ये चारों शद्धोपयोग रूप ध्यान है।
वितर्क विचार तो सत, मन, वचन, काय तीनों योगों में बदलने वाला प्रथम शुक्ल ध्यान है सयह श्रुत केवली के होता है । पृथक-पृयक ध्येय भी विर्तक के पाश्रय से बदलते रहते हैं। इसके फल से मोहनीय कर्म शांत होकर एकत्वं वितर्क ध्यान की योग्यता होती है। यह प्रपूर्व करण संशक भष्टम्