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णमोकार ग्रंथ
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(२) लाभांतराय - जिसके उदय से वांछित इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हुए भी लाभ न हो ।
(३) भोगांतराय - जिसके उदय से या तो भोग्य पदार्थ प्राप्त न हों और यदि प्राप्त हों तो रोग श्रादि के होने से भोग न सकेँ बहू भोगांतराय है ।
(४) उपभोगांतराय --जिसके उदय से या तो उपभोग्य पदार्थ ही न मिलें और यदि मिलें तो किसी विघ्न से भोग न सकें। गंध, अतर, पुष्पमाला, तांबुल, भोजन, पान आदि जो एक ही बार भोगने में आए वे भोग हैं और शय्या, आसन, स्त्री, आभरण, घोड़ा गाड़ी श्रादि जो बार-बार भोगने में आए वे उपभोग हैं ।
(५) वीर्यान्तराय - जिसके उदय से पौरुषहीन, निर्बल चित्त हो, वे जप, तप, व्रन आदि कुछ भी न कर सकें वह वीर्यान्तराय है ।
अब बन्ध पदार्थ से अन्तर्भूत पुण्य और पाप बंध भी हैं इसलिए उनमें से पहले पुण्य प्रकृतियों को कहते हैं । सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये पुण्य रूप हैं। वे इस प्रकार हैं :१) साता वेदनीय (२) तिर्यंच प्रायु ( ३ ) मनुष्य प्रायु (४) देव श्रायु (५) उच्च गोत्र ये पांच और नाम कर्म की नरेसठ मनुष्य गति (१) देव गति (२) पंचेन्द्रिय जाति (३) निर्माण (४) समचतुरस्त्र संस्थान (५) वञ्च नृपभनाराच संहनन ( ६ ) मनुष्य गत्यानुपूर्वी (७) देव गत्यानुपूर्वी (८) अगुरु लघु ( 2 ) परघात (१०) (१) (२) उद्योद् (4) वास्तविहायोगति (१४) प्रत्येक शरीर (१५) अस (१६) सुभग (१७) सुस्वर (१८) शुभ (१६) बादर ( २० ) पर्याप्ति ( २१) स्थिर (२२) प्रादेय (२३) यशस्कोत (२४) तीर्थंकरत्व : २५) और पांच शरीर (२६-३०) तीन अंगोपांग (३१-३३) पांच बंधन ३४-३८) पांच संघात ३९-४३) माठ प्रशस्त स्पर्श (४४-५१ ) पाच प्रशस्त रस ( ५२-५६ ) दोगंध ( ५७-५८ ) चार प्रशस्त वर्ण ( ५६-६३ ) उक्त ( ६८ ) प्रकृतियों में शेष कर्म प्रकृतियां पाप रूप हैं।
स्थिति बंध वर्णन -
कषाय की तीव्रता मन्दता के अनुसार जितने काल तक कर्म वर्गणा सत्ता में रहे, फल देकर उनकी निर्जरा हो उस समय की मर्यादा पड़ने को स्थिति बंध कहते हैं। स्थिति बंध दो प्रकार का है (१) जघन्य स्थिति बंध और (२) उत्कृष्ट स्थिति बंध ।
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इसमें उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी अन्तराय और वेदनीय सागर है । इस उत्कृष्ट स्थिति का बंध मिध्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के नाम कर्म और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीसकोड़ाकोड़ी सागर की
मोहनीय की उत्कृष्ट
स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर की तथा श्रायु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर की होती है ।
अब कर्मों की जघन्य स्थिति कहते हैं
की बीस कोड़ाकोडी होता है ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय और प्रायु इन पांच की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्न (जो दो घड़ी के भीतर-भीतर हो उसे प्रन्तर्मुहूर्त कहते हैं) नामकर्म और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति पाठ मुहूर्त और वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति प्राठ मुहूर्त है।
इस प्रकार स्थितिबंध का वर्णन किया ।