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णमोकार प्रय
समवशरण में स्थित रहने से पाप पुरुष है ०६॥
ॐ ह्रीं अह पूर्वस्मैः नमः ॥८१०1। सबसे पूर्व अर्थात् अग्रसर होने से आप.पूर्व हैं ।।८१०॥
ॐ ह्रीं मह कृतपूर्वाग विस्तराय नमः ८११।। ग्यारह अंग, चौदह पूर्व का समस्त विचार निरूपण करने से आप कृतपूर्वाग विस्तार हैं ।।११
ॐ ह्रीं मह प्रादिदेवाय नमः ।।१२। सब देवों में मुख्य होने से पाप अादिदेव हैं ।।८१२।। ॐ ह्रीं अहं पुराणाद्याय नमः ।।८१३।। सब पुराणों में प्रथम होने से प्राप पुराणाय हैं ।। ८१३॥
ॐ ह्रीं मह पुरुदेवाय नमः ८१४|| इंद्रादि देव मुख्यता से आपकी ही आराधना करते हैं अथवा माप सबके ईश है इसलिये पुरुदेव हैं 11८१४।।
ॐ ह्रीं अहं युग मुख्याय नमः ।।१५।। इस प्रक्सपिणी काल के मुख्य होने से पाप युगमुख्य कहे जाते हैं 11८१५॥
ॐ ह्रीं अहं अधिदेवाय नमः ।।८१६॥ वेवों के भी देव होने से प्राप अधिदेव है |१६||
ॐ ह्रीं प्रह युगज्येष्ठाय नमः ८१७। इसी युग में सबसे बड़े होने से माप युगज्येष्ठ कहलाते हैं ॥१७॥
ॐ ह्रीं महं युगादिस्थितिदेशकाय नमः ।।८१८|| कर्मभूमि के प्रारम्भ में कर्मभूमि की स्थिति के मुख्य उपदेशक होने से प्राप युगादिस्थिति देशक कहलाते हैं ।।१।।
____ॐ ह्रीं महं कल्याणवर्णाय नमः ।।८१६।। आपके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान होने से कल्याण वर्ग है॥१९॥
*हीं अहं कल्याणाय नमः ||२०|| कल्याण स्वरूप होने से प्राप कल्याण हैं ॥२०॥
ह्रीं अहं कत्याय नमः ।।८२१|| सबके कल्याण करने में समर्थ होने से आप कल्य हैं ।।८२१॥
ॐ ह्रीं अहं कल्याणलक्ष्मणाय नमः ।।२२।। मंगलस्वरूप होने से अथवा कल्याणरूप लक्षणों को धारण करने से पाप कल्याणलक्षण कहलाते हैं ।।२२।।
ॐ ह्रीं प्रहं कल्याण प्रकृतये नमः ॥८२३।। प्रापका स्वभाव ही कल्याणस्वरूप होने से प्राप कल्याण प्रकृति कहे जाते हैं ॥२३॥
ॐ ह्रीं महं दीप्तकल्याणात्मने नमः ।।८२४॥ चारों मोर प्रकाशमान होता हा पुण्य प्रथवा कल्याण ही मापका स्वभाव है, इसलिये माप दीप्तकल्याणास्मा कहे जाते हैं ।।५२४॥
ॐहीं अहं विकल्पषाय नमः ॥८२५|| पाप पाप रहित होने से विकल्पष हैं 11८२५|
ॐहीं पह विकलकाय नमः ।।८२६॥ काम प्रादि कलंक से रहित होने के कारण प्राप विकलंक हैं ।।८२६॥
ॐ ह्रीं अहं कलातीताय नमः ।२७।। पाप शरीर रहित होने से कलातीत है ।।२७||
ॐ ह्रीं महं कलिलाय नमः ॥२॥ आप पापों को नाश करने वाले होने से कलिलच्न है ॥२८11.
___ॐ हीं महं कलाधराय नमः ।।१२।। अनेक कलाओं को धारण करने से पाप कलाधर हैं ।।८२६॥
*ह्रीं पहं देवदेवाय नमः ॥३०॥ इंद्रादि सभी देवों के देव होने से प्राप देव देव हैं ।।८३०।।