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गमोकार ग्रंथ
चौथे तप स्वाध्याय के पांच भेद हैं-निर्दोष ग्रन्थ का तथा उसके अर्थ का स्वयं पठन करना बांधना स्वाध्याय है ।।१।। पठन करते हुए जहाँ संशय हो, उसको बड़े ज्ञानियों से प्रश्न करके अपनी शंका को दर कर लेना प्रच्छना स्वाध्याय है ॥२१ विचार द्वारा तथा गुरूजनों से जाने समझेहए तत्व को बारम्बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है ॥३।। जो विचार करके निर्णय किया हो उसको आचार्यों के वारयों से मिलाकर प्राम्नाय स्वाध्याय है ॥४|| उन्मार्ग को दूर करने के लिए पदार्थों का समीचीन स्वरूप प्रकाश करना, उपदेश रूप कथन करना धर्मोपदेश स्वाध्याय है ।।५।।
पांचवा व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का है-एक बायोपधित्याग है । १॥ क्रोधादि प्रतरंग परिग्रहों का त्याग प्राभ्यन्तरोपधि त्याग तप है ।।२।।
छठा ध्यान नामक आभ्यंतर तप ध्यान पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन भेदों से चार प्रकार का है। प्रथम लोक के स्वरूप का चितवन, पाताल, मध्य, नरकादिक का चितवन, मध्य लोक मैं द्वीप, क्षेत्र, पर्वतादि का चितवन, ऊर्ध्वलोक के स्वार्गादि का चितवन, करना पिंडस्थ ध्यान है। अपने हृदय के मध्य कमल स्थापन कर उसमें कणिका की स्थापना करें, कणिका के मध्य में ओंकार स्थापन कर उन कीणिकाओं में स्वर-व्यंजन स्थापन करके ध्यान करना पदस्थ ध्यान है ॥२॥ समवशरणादिक विभूति सहित सिंहासन पर अन्तरिक्ष विराजमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय
परहंत भगवान् के स्वरूप का चितवन करना रूपस्थ ध्यान है ॥३॥ सब कर्मा से रहित, पौदगलिक मूर्तिक शरीर से रहित, अनन्त गुणों के भंडार ऐसे भगवान् सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान करता है सो रूपातीत ध्यान है ।।४॥ ऐसे बारह प्रकार के तप का वर्णन किया। आगे दश प्रकार का जो धर्म प्राचार्य प्राचरण करते हैं, उसे लिखते हैं--
दोहा-क्षमारुमार्दव पासवा, सस्य शोधतापाग।
संयम तप त्यागी सरब, प्राकिचनतियत्याग ॥१॥ प्र-१. उत्तम क्षमा, २. माव, ३. प्रार्जव, ४, सत्य, ५. शोच, ६. संयम, ७. तप, ८. त्याग, ६. प्राचिन्य पोर १०. ब्रह्मचर्य ऐसे दश प्रकार के धर्म हैं । दुष्ट मनुष्यों के द्वारा तिरस्कार, हास्यादि क्रोध की उत्पत्ति के कारण होने पर भी, सम्यग्ज्ञान पूर्वक संपनी दण्ड देने की शक्ति होते हुए भी अपराध को क्षमा करना उत्तम क्षमा है ।।१।। सम्यग्ज्ञान पूर्वक अभिमान के कारण होते हुये भी गर्व न करना उत्तम मार्दव है ॥२|| मन, वचन, काय की कुटिलता त्याग कर सरल रूप से रहना उत्तम प्रार्जव है ॥३॥ पदायों का स्वरूप ज्यों का त्यों वर्णन करना और प्रशस्त वचन अर्थात धर्म के अन
अनकल स्व पर हितकारी वचन बोलना सत्य है ॥४|| प्रात्मा को कषायों द्वारा मलिन न होने देना उत्तम शौच है ।।५।। इन्ट्रिय प्रार मन को विषयों से रोकना और षड् प्रकार के जीवों की रक्षा करना उत्तम संयम है ।।६।। सांसारिक विषयाभिलाषा तजकर अनशनादि द्वादश प्रकार का तप करना उत्तम तप है ॥७॥ धनधान्यादिक का त्याग बाह्य त्याग और देषादिक को छोड़ना अंतरंग तप है ।। प्रात्मस्वरूप से भिन्न शरीरादिक में ममत्व रूप परिणामों का प्रभाव उत्तम प्राकिचन्य है ।।६।। स्त्री मात्र से चित्त घटाकर अपना ब्रह्म जो प्रात्मा है उसमें चित्त का स्थिर करना सो उत्तम ब्रह्मचर्य है ।।१०।। ऐसे दश प्रकार उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया है।
मम पंचाचार और तीनगुप्ति का वर्णन करते हैं :