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ममौकारप
(१२) ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता, एवम् पच्चीस गुण के धारक उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना बहुश्रुत भक्ति है।।
(१३) अहिसा धर्म के प्रापक वीतरागोक्त शास्त्र के गुणों में अनुराग करना प्रबचन भक्ति है।
(१४) सामायिक, वन्दना, स्तवन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: प्रावश्यकों में हानि न करने, इनको सम९९ करनायकापरिहापिमान है।
(१५) स्यावाद विद्या का अध्ययन कर अज्ञान रूप अन्धकार के विस्तार को दूर कर अन्य मतावलम्बियों को ग्राश्चर्य में डालने वाले मोक्षमार्ग का प्रभाव बढ़ाना मार्ग प्रभावना है।
(१६) साधर्मी जनों से निष्कपट समीचीन भाव सहित गोवत्ससम् अटूट प्रीति करना प्रवचनवात्सलत्व है।
इस प्रकार ये सोलह भावना तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रव का कारण हैं। गोत्र कर्म के प्रालय के कारणः --
अपने गुण तथा दूसरे के दोष, अभिमान तथा ईर्ष्या से प्रगट करना तथा अपने अवगुण और दूसरे के गुणों का माच्छादन करना, निर्दोष को दोष लगाना, अपनी जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य, विद्यादि का गर्व करना, दूसरे के विद्यमान गुण देख कर उसकी निन्दा करना, हंसी करना तथा उसे मानी बताना देव, गुरु, धर्म तथा अपने से वृद्धजनों का आदर, विनय, सत्कार नहीं करना ये सब नीव गोत्र के प्रास्त्रव के कारण हैं।
नीच गोत्र के प्रास्रव के विपरीत के कारण अर्थात अपनी निंदा, पर की प्रशंसा करना, पराए, गुण व अपने अवगुण प्रकाट करना, अपने गुण व पर के अवगुण ढांकना, अभिमान न करना, अपने से बद्धों की विनय करना, जाति, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, विद्यादि गर्व के कारण होते हुए मद नहीं करना ये ऊँचे गोत्र कर्म के प्रास्रव के कारण हैं । अन्तराय कर्म के प्रास्त्राव के कारण
___कोई दान देता हो अथवा दान देने की इच्छा करता हो उसमें विघ्न करने से दान अन्तराय का, किसी को लाभ होते देखकर उसमें विघ्न करने से लाभ अन्तराय का, दूसरे के उपयोग या भोग में आने योग्य सामग्री के प्राप्त होने में विघ्न करने से भोगोपभोग अन्तराय का, किसी के बल, वीर्य में विघ्न डालने से वीर्यान्तराम कर्म का प्रास्रव होता है।
__इस प्रकार ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों के शुभाशुभ प्रास्त्रब होने के प्रधान-प्रधान कारणों का वर्णन किया।
अथ वष तथ का वर्णनजो आत्मा के राग, द्वेष प्रादि अशुद्ध परिणाम कर्मरूप पुद्गल परमाणुओं को मात्मा के प्रदेश से वचने के कारण हों उनको भाव बंध कहते हैं और वही कर्मरूप पुद्गल जब प्रात्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रवागाही होते हैं उसे द्रव्य बंध कहते हैं। वह बंध चार प्रकार का होता है-(१) प्रदेश बंध (२) प्रकृति बंध (३) स्थिति बंध (४) अनुभाग बंध ।
(१) प्रात्मा के मन, वचन, काय की क्रिया से कमरूप पुद्गल परमाणुमों का आत्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रावगाही रूप होना प्रदेश बंध है।
(२) कर्म वर्गणाओं में पृथक्-पृथक् प्रात्मगुण के घात करने को प्रकृति बंध कहते हैं ।