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णमोकार ग्रंथ
(३) जितने काल तक कर्म वर्गणा ससा रहे, रस देकर निर्जरित हो, उस काल की मर्यादा को स्थित बंध कहते हैं।
(४) तीन, मंद रस देने की जो कर्मों की शक्ति है उसे अनुभाग बंध कहते हैं। प्रवेश बंध वर्णन
प्रात्मा के मन, वचन, काय रूप योग विशेषों के द्वारा ज्ञानावरणादि प्राप्ट कर्मों के होने योग्य कर्म वर्गणानों का प्रात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही होना प्रदेश बंध है। सर्व संसारी जीवों के प्रत्येक समय में अभव्य राशि से अनन्त गुणा और सिद्ध राशि से अनन्तवें भाग ऐसे मध्य के अनन्तानन्त प्रमाण को लिए हुए कार्माण वर्गणाओं का बंध होता है । इन प्रत्येक समय में प्रष्ट कर्मों का भिन्न-भिन्न न्यूनाधिक विभाग होता है वह इस प्रकार का है सबसे अधिक वेदनीय का, क्योंकि वेदनीय कर्म सुख-दुख का कारण है इसलिए इसकी निर्जरा बहुत होती है, इससे किंचित् न्यून मोहनीय का है, उससे किंचित् न्यून ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीनों को बराबर-बराबर भाग इनसे कचित् न्यून नाम और गोत्र दोनों का बराबर-बराबर और सबसे कम प्रायुकर्म का विभाग होता है। प्रत्येक समय में बंधी हई कार्माण धर्गणामों में सात कर्म रूप बंटवारा और प्रायु बंध के योग विभाग के अन्तम हर्त काल में आठ कम रूप बंटवारा होता है जैसे एक बार ही खाया हुआ एक ग्रास रूप में अन्न का, रक्त, रस, मांसादि सप्तधातु रूप में परिणमन हो जाता है। प्रकृति बंध का वर्णन--
प्रकृति नाम स्वभाव का है जैसे नीम की प्रकृति कटु, गन्ने की मीठी, नीबू की खट्टी, ऐसे ही कर्मों के विभाग में आई हुई वर्गणाओं में उसी स्वभाव वाली प्रकृति का पड़ जाना प्रकृति बंध है जैसे ज्ञानावरण की प्रकृति ज्ञान रोकने की, दर्शनावरण की प्रकृति दर्शन रोकने की, वेदनीम की सुख-दुःख जानने की, मोहनीय की भ्रम उपजाने की, अन्त राय की विघ्न करने की, आयु की भव में रखने की, गोत्र की ऊँच-नीच करने की, नाम कर्म की अनेक योनियों में नाना प्रकार शरीर रचने की प्रकृति होती है। ये प्रष्ट कर्मों की सामान्य प्रकृति बंध का स्वरूप वर्णन किया। अब विशेष तथा अन्तर प्रकृतियों के बंध तत्त्वों का स्वरूप कहते हैं।
प्रथम कर्म ज्ञानावरणी की पांच प्रकृतियां हैं।
(१) प्रावरण नाम परदे वा ढकने का है जो मन पोर इन्द्रियों से उत्पन्न मतिज्ञान का प्रावरण करे वह मतिज्ञानावरण है।
(२) जो मन अनित अक्षरात्मक, प्रनक्षरात्मक ज्ञान का आच्छादन करे वह श्रुत ज्ञानावरण है ।
(३) जो देशावधि, परमावधि, सर्वावधि इन तीनों भेद रूप अवधिज्ञान का प्रावरण करे वह अवधिज्ञानावरण है।
(४) ऋजुमति, विपुलमति भेद रूप जो मनःपर्यय ज्ञान का भावरण करे वह मनःपर्यय सानावरण है।
(५) जो सर्व द्रव्यवर्ती, त्रिकालवर्ती अनन्त पर्शयों के जानने वाले केवल ज्ञान का प्रावरण करे यह केवल ज्ञानावरण है।
ये पाच प्रकृतियां प्रात्मा की शान शक्ति को रोकती है। दूसरी मूल प्रकृति दर्शनावरण की है उसको उत्तर प्रकृति नौ हैं।