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गमौकार प
कैसे हैं अहंत भगवान ? जो गृहावस्था को छोड़कर, मुनिव्रत धारण कर कर्मों की निर्जरा कर उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय प्रादि चार कर्मा का नाश कर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख पौर अनन्त वीर्यरूपी अन्तरंग लक्ष्मी और समवशरण आदि बाह्य लक्ष्मी को प्राप्त कर परमौदारिक शरीर से भव्य जीवों को निज उपदेशामृत की वर्षा कर संसार भ्रमण से प्राप्त हुई संतप्तता को शान्त करते हैं अर्थात् उससे छुड़ा देते हैं। ऐसे अर्हन्त भगवान को मेरा बारम्बार नमस्कार हो ।
कैसे हैं सिद्ध भगवान ? जो कर्म रहित सम्यक्त्वादि प्रष्ट गुण मंडित, जन्म, जरा, मरण रहित अविनाशी, निष्कल' परमात्मा लोक के शिखर में स्थित हैं उनको मेरा बारम्बार नमस्कार हो।
कैसे हैं प्राचार्य महाराज? जो दादशांग रूप श्रुतसागर के पारगामी स्वपर कल्याण के कर्ता स्वयं पंच' चार रूप का पालन करते हैं और संघ समूह को करवाते हैं उन प्राचार्य को मेरा बारम्बार नमस्कार हो।
कैसे हैं उपाध्याय परमेष्ठी ? ग्यारह भंग और चौदह पूर्व के पाठी पच्चीस गुण के धारक, मोक्ष मार्ग के उपदेशक उपाध्याय को निजात्म सत्य की प्राप्ति के लिए बारम्बार नमस्कार हो। .
कसह साप परमेष्ठी? संसारी विषय कषात्रों से विरक्त, निर्ग्रन्थ मद्रा के धारी मोक्ष माग का साधन करने में तत्पर, मनशनादि व्रत करके कर्मों की संवर व निर्जरा के कर्ता ऐसे साधू परमेष्ठी मुझे मोक्ष मार्ग का उपाय बताएं। इति पंच परमेष्ठी गुण का वर्णन करने वाला प्रथम अधिकार सम्पूर्ण हुमा ।
॥अथ रत्नत्रय नामक द्वितीयोऽषिकारः॥ संसारी जीवों की दुखमय दशा को देखकर परम पूज्य तीर्थकर भगवान ने अपार संसार से विरक्त होकर गृहस्थ अवस्था को छोड़कर मुनि पद धारण करके शुभाशुभ कमों को जीतकर परम शुक्ल ध्यान के बल से धार धातिया कर्मों का नाश करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इन चार मनन्त चतष्टय से युक्त परमौदारिक शरीर में रह कर संसारी जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया जिसमें मोक्ष व मोक्ष के कारण तथा संसार के कारण और स्वरूप को सम्यक् प्रकार से दर्शाया और मोक्ष प्राप्ति के लिए पात्मा के निज स्वभाव सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान सिद्ध करने के लिए कम जनित विभावों को छोड़कर निजस्वभाव में प्रवृत होने के लिए सम्यक् चारित्र धारण करने का उपदेश दिया। मनादि काल से किए हुए गृहीत, अगृहीत, मिथ्यात्व स्वरूप रोग को एकदम दूर करने की शक्ति सर्वसाधारण मनुष्य में नहीं है इसलिए जैसे बहुत काल पर्यन्त सेवन करतं अफीम के व्यसनी मनुष्य का एकदम व्यसन को छोड़ने में असमर्थ जानकर क्रम क्रम से छोड़ने की परिपाटी बताई जाती है उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान ने निज दिव्य ध्वनि के द्वारा संसार रोग से मुक्त होने के लिए संसारी जीवों का मुनि और श्रावक धर्म ऐसी दो श्रेणियों का उपदेश दिया। पूर्ण सुखी होने का यत्न तो यद्यपि मुनि पद ग्रहण करने से होता है परन्तु जब तक ऐसा न हो सके, जब तक उस शक्ति को धारण करने में असमर्थता हो तब तक गृहस्थाश्रम में रहकर मनुष्य यथाशक्ति, यथाक्रम, सम्यक् प्रकार और रुचि पूर्वक अभ्यास करते रहने से, प्रत की वृद्धि होने से मुनिव्रत धारण करने की शक्ति प्राप्त कर सकता है प्रतः यहां प्रथम अणुक्त रूप गृहस्थ धर्म का वर्णन करते हैं ।
प्रथम सम्यक् दर्शन का वर्णन करते हैं, क्योंकि सम्यकत्व रूपी नींव के बिना चरित्र रूपी महल नहीं बन सकता जैसे कहा भी है कि