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नमोकार
भेद और परमाणु संघात मिलकर स्कंध रूप होता है । स्निग्य और रूक्ष गुण से बंध होता है। यदि गुणहीन हो अथवा दोनों में समान हो अथवा एक तीन से कितने ही गुण अधिक परिच्छेद हो तो बंध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि बंध तब ही होता है जब एक में दूसरे से दो गुण अधिक हो जैसे चार स्निग्ध वाले के साथ पांच, सात, नौ अधिक स्निग्ध वा रुक्ष बाले के साथ ही बंध होगा इसी प्रकार समस्त बंधों में दो दो गुण अधिक वाले का ही बंध होता है। इस नियम के अनुसार एक गुण वाले और तीन गुण वाले का भी बंध होना चाहिए, किन्तु वह नहीं होता क्योंकि यह नियम है कि 'न जघन्य गुणानान्तृ अर्थात जघन्य गुण सहित परमाणुषों में बंध नहीं होता है । अतएव एक गुण वाले का तीन गुण वाले के साथ बंध नहीं होता । किन्तु तीन गुण वाले का पांच गुण वाले के साथ बध हो सकता है क्योंकि तीन गुण वाला जघन्य गुण वाला नहीं है। एक मुण वाले को ही जघन्य गुण कहते हैं । पौर बंध अवस्था में अल्प गुण के स्कंध अधिक गुण वाले के ही स्कंध रूप हो जाते हैं। यह पुद्गल द्रव्य का संक्षेप में वर्णन किया है।
धर्म द्रव्य वर्णन यह धर्म द्रव्य गमन करते हुए पुद्गल और जीवों को उदासीन रूप से सहकारी होता है। धर्म द्रव्य के बिना जीव या पुद्गल चल नहीं सकता है । परन्तु धर्म द्रव्य किसी स्थिर वस्तु को बलपूर्वक भी नहीं चलाता है पानी मछलियों के चलने में सहकारी होता है। किन्तु प्रेरक नहीं होता। यह द्रव्य असंख्यात प्रदेश, नित्य अविनाशी, विभाग पर्याय रहित, निष्क्रिय तिल में तलवत समस्त लोकाकाश में व्याप्त है।
__ अधर्म द्रव्य वर्णन __यह पधर्म द्रध्य पुद्गल और जीवों को स्थित होते हुए उदासोन रूप से सहायता देता है जैसे मार्ग में चलने वाला पथिक वृक्ष की छाया में बैठ जाता है परन्तु वह चलते हुए मनुष्य को प्रेकर होकर नहीं ठहराता है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्थिर होने को प्रेरणा नहीं करता है । यह द्रव्य भी प्रसंख्यात, प्रदेशी, अविनाशी, निष्क्रिय, प्रमूर्तिक है और तीन लोक में सर्वत्र व्याप्त है।
आकाश द्रव्य वर्णन यह आकाश द्रव्य जीवादि पाँच तत्वों को अवकाश दान देने वाला, जड़, मरूपी, अनन्त प्रदेशी एक है इसमें भी स्वभाव पर्याय होती है विभाग पर्याय नहीं होती । जितने प्राकाश में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और जीव द्रव्य स्थित हैं वह लोकाकाया है और जहाँ ये एक भी नहीं हैं केवल प्राकाश ही प्राकाश है वह प्रलोकाकाश है।
काल द्रव्य वर्णन यह काल द्रव्य वर्तना लक्षण युक्त है। प्रत्येक द्रव्य का परिवर्तन करने वाला अर्थात् पर्याय से पर्यायांतर होने में उदासीन रूप से सहकारी होता है जिस प्रकार कुम्हार के बाक के फिरने में चाक के नीचे की कीली कारण है यद्यपि फिरने की शक्ति चाक है, चाक ही फिरता है किन्तु वह बिना नीचे की कीली के फिर नहीं सकता, इसी प्रकार जीव, पुद्गल प्रादि समस्त पदार्थ जो अपने पाप परिणमन होते रहते हैं उनके परिणमन में काल निमित कारण है। व्यवहार नय से इसकी पर्याय समय, पल, घटिका, मुहूर्त पौर दिन, सप्ताह, पक्ष, मास. अयम वर्षादि है यह निश्चय काल की पर्याय है। नवीन से पराना. पराने से नवीन करना काल द्रव्य का ही उपकार है। समय काल की पर्याय का सबसे छोटा अंश है। इसी के समूह से पावली, घटिका मादि व्यवहार काल का प्रमाण होता है। यह व्रव्य प्रवि