________________
णमोकार भर नाशी, प्रमूत्तिक और जड़ है इसके अणु लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर असंख्यात हैं क्योंकि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर काल द्रव्य का एक-एक अणु रत्नों की राशि के समान भरा है। रत्नों की राशि का उदाहरण देने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार रत्न-राशि एकत्रित होने पर भी उनमें प्रत्येक रत्न पृथक-पृथक रहता है उसी प्रकार काल के अणु पृथक-पृथक हैं वे मिलकर एकत्र नहीं हो सकते, एक प्रदेशी हैं। इस कारण काल को काय संज्ञा नहीं दी जा सकती। काल को छोडकर दोष पाँच द्रव्य अर्थात धर्म, अधर्म, पुद्गल, आकाश व जीव को अतिकाय कहते हैं इनमें स्वभाव पर्याय होती है विभाव नहीं होती।
इति उपरोक्त छ: द्रव्यों में से चार द्रव्य वर्णन समाप्त हुआ। धर्म, अधर्म, आकाश और काल उदासीन स्वभाव रूप और स्थिर रहते हैं और बाकी दो द्रव्यजीव और पुद्गल में ही लोकाकाश में भ्रमण की शक्ति है इससे इन दोनों को क्रियावान कहते हैं शेष चार द्रव्य निष्क्रिय होते हैं।
अंजीव तत्त्व वर्णन समाप्त हुमा। इनमें जीन-अजीव दो तत्वों के अतिरिक्त शेष पाँच तत्त्वों की उत्पत्ति जीव और अजीव (पुद्गल) के संयोग तथा वियोग की विशेषता से है । जीव पुद्गल का संयोग रहना, संसार और जीव व पुदगल का अत्यन्त वियोग हो जाना मोक्ष है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में ये सप्त तत्त्व अति ही कार्यकारी हैं। ये प्रात्मा के स्वभाव व विभाग बताने के लिए दोपक के समान है। इसलिए सबसे पहले हमको जानना चाहिए क्योंकि इसके जाने विना दृढ विश्वास नहीं हो सकता और विश्वास बिना कर्तव्य
और अकर्तव्य को यथार्थ प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इन सप्त तत्वों को जानने का मुख्य प्रयोजन यही है जिससे प्रात्मा के स्वभाव-विभाग का श्रद्धान ऐसा हो जाए कि प्रास्त्रव के द्वारा बंध होता है और बंध जीव, अजीब का संसर्ग कर दुःख पाता है और संवर से प्रास्त्रव थकता है तथा निर्जरा से क्रमशः बंध छटता है। कर्म के सर्वथा अभाव होने से जीव को मोक्ष होता है, इससे ये दोनों मोक्ष रूप कार्य के कारण हैं इनमें से अजीव, आस्त्रब बंध हेय अर्थात त्यागने योग्य हैं और जीव, संवर, निर्जरा मोर मोक्ष ये उपादेय अर्यात ग्रहण करने योग्य हैं और मोक्ष होने पर संवर, निर्जरा भी हेय है. प्रास्त्रव, संवर और निर्जरा कारण हैं, बंध और मोक्ष कार्य हैं इन सातों तत्त्वों में पाप, पुण्य मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं, इस प्रकार इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और तत्त्वों के ज्ञान बिना धद्वान होना असम्भव है। इसी कारण साक्षात् प्रात्मा का श्रद्धान कराने वाले सप्त तत्त्वों के वर्णन में से दो तत्त्वों का पूर्ण वर्णन कर शेष पांच तत्वों का वर्णन करते हैं।
प्रास्त्रव तत्व वर्णन जीवों की मिथ्यात्व, अविरत कषायादि भावों से युक्त मन, वचन, काय को प्रवृत्ति होने से तथा उनके अभाव में पूर्व बद्ध कर्म के उदय होने से, केवल योगों द्वारा प्रात्म-प्रदेशों के चंचल होने से प्रात्मा के बद्ध होने के लिए पुद्गल परमाणुओं को सन्मुख होना द्रव्यास्त्रव और मात्मा के जिन भावों से पुद्गल द्रव्य कर्म रूप होते हैं उन भावों को भावास्थव कहते हैं। इस भावास्थय के (१) मिथ्यात्व (२) मविरति (३) कषाय (४) प्रमाद (५) योग ये पांच भेद हैं। जीवादि तत्व का अन्यथा श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। इसके दो भेद हैं (१) ग्रहीत मिथ्यात्व और (२) प्रग्रहीत मिथ्यात्व। पर के उपदेश के बिना पूर्वोपार्जित मिथ्यात्वकम के उदय से जो प्रतत्व श्रद्धान हो उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ग्रहीत