________________
૩
णमोकार ग्रंथ
सहित १२ योजन प्रमाण के समस्त जीव पुद्गलों को भस्म करता है और फिर उल्टा आकर मुनि को भस्मकर आप भी भस्म हो जाता है। सुचना -- किसी स्थान पर ऐसा भी लिखा है कि मुनि के बांए कंधे से प्रात्मप्रदेश पुतलाकार रूप में निकल १२ योजन लम्ब, नव योजन चौड़े क्षेत्र को मुनि सहितभस्म कर देते वह अशुभ तैजस समुद्घात है। लोक में किसी प्रकार को दुभिक्षादि व्याधि देखकर करुणावश मुनि के बांए कंधे से मनुष्य के श्राकार समान श्वेत वर्ण श्रात्म प्रदेशों का पुतला निकलकर अपनी शक्ति से बारह योजन प्रमाणक्षेत्र के जीवों की व्याधि दुर्भिक्षादि को दूरकर फिर उलटा आकर शरीर में प्रवेश करता है। वह शुभ तैजस है। ऐसे दो प्रकार तैजस समुद्घात है ।
तेरहवें गणस्थान में जब केवली भगवान की प्रायु थोड़ी रह जाती है और कुछ संसार भ्रमण शेष रहता है तब मुनि दंडक पार करते हैं तब प्रथम समय में दंड रूप आत्मा के प्रदेश निकलें दूसरे में कपाट रूप हो जाएं तीसरे में प्रतर रूप, चौथे में लोक पूर्ण हो जाएं, फिर पांचवे में संकुचित होकर प्रतर रूप हो जाएं, छठे में कपाट रूप, सातवें में केवली शरीर में प्रवेश कर शरीर प्रमाण मात्मा के प्रदेश हो जाते हैं। इन कारणों के उपस्थित होने पर ही चैतन्य शरीर से बाहर निकलता है । इनके सिवाय आत्मा देह प्रमाण ही रहता है और निष्कर्म अवस्था (सिद्धावस्था) में चरम शरीर से किंचित न्यून आकार प्रमाण आत्मप्रदेश रहते हैं ।
विशेष - जो महामुनि उत्कृष्ट रूप से आयु के छह मास अवशेष रहने पर केवल ज्ञानी होते हैं उनके तो नियम से केवल समुद्घात होता है और जो प्रायु के षट् मास से अधिक अवशिष्ट रहने पर केवल ज्ञानी होते हैं उनके यदि अन्त में आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाए और वेदनीय, नाम तथा गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति विशेष हो तो उनके उक्त तीनों कर्मों की स्थिति श्रायुकर्म के समान करने के लिए नियम से समुद्घात होता है जिससे आत्म प्रदेशों के विस्तारित होने से वेदनीय यादि तीनों कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे किसी गीले वस्त्र को यदि फैला दिया जाता है तो उस में से जल परमाणु शीघ्र ही क्षय होकर श्रल्प समय में हो सूख जाते हैं उसी प्रकार श्रात्मा के प्रदेश केवल समुद्धात के समय दंड कपाट आदि रूप विस्तृत होने से वेदनीय श्रादि तीनों कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जिन केवलियों के खड़े हुए समुद्घात होता है उनको प्रथम समय में आत्मा के प्रदेश वातवलयों की मोटाई को छोड़ कर चौदह राजू लम्बे और द्वादश अंगुल परिणाम मोटे धन रूप दंडाकार निकलते हैं । और यदि बैठे हुए समुद्घात होता है तो अपने शरीर से तिगुने मोटे और वातवलयों की बहुलताहीन चौदह राजू लम्बे दंडरूप आत्म- प्रदेश होते हैं । दूसरे समय में दंडाकार को तजकर यदि केवली पूर्व मुख स्थित हों तो पूर्व पश्चिम खड़े हुए समुद्घात करने वालों के द्वारा दस अंगुल परिमित और बैठे हुए वं अपने शरीर से तिगुने मोटे कपाट रूप आत्म-प्रदेश होते हैं ।
तीसरे समय में आत्मा के प्रदेश वातवलय बिना समस्त लोक में प्रतररूप और चौथे समय में वातवलयों सहित ३४३ राजू प्रमाण लोक में घन रूप भ्रात्मा के प्रदेश व्याप्त होकर लोकपूर्ण होते हैं । पश्चात पाँचवे समय में संकुचित होकर प्रतर रूप छठे में कपाट रूप, सातवें में दंड रूप आठवें में मूल शरीर प्रमाण हो जाता है ।
सातवां संसारस्य अधिकर
जब तक यह जीव कर्मों के वशीभूत होकर नाना प्रकार जन्म मरण करते हुए संसार में भ्रमण करता रहता है तब तक संसारी है । संसारी जीवों के मुख्यतः दो भेद हैं—स्थावर और जस । स्थावः पाँच प्रकार के हैं