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गमोकार ग्रंग
तेरहवां क्रियाविशालपूर्व । इसमें नौ करोड़ पद हैं इसमें पिंगल व्याकरण तथा शिल्पादि अनेक कलाओं का निरूपण है ॥१३॥ चौदहवाँ त्रिलोक बिन्दुसार है । इसमें धारह करोड़ पचास लाख पद हैं। इसमें नक्षत्र राशि व्यवहार विधि तथा परिक्रम विधि आदि का कथन है समस्त पूर्वो के ६५ करोड ५० लाख पांच पद हैं ॥इति चौदह पूर्व वर्णनम् ।।
पुनः द्वादशांग का पांचवां भेद चूलिका है इसके पांच भेद हैं । इनका नाम जलमत १. थलगन २. ग्राकाशगत ३. रूपगत ४. मायागत ५. हैं । पांचों में प्रत्येक चूलिकाओं के दो करोड़, नव लाख, नवासी हजार, दो सौ पद हैं। पांचों चूलिका के एकत्र किये दा करोड़, उनचास लाख, छियालिस हजार पद हैं । यहाँ तक तो अंगप्रविष्ट का कथन किया । सर्व द्वादशांग वाणी के एक अरब, बारह करोड़ तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पांच पद हैं। इनके उपरान्त पाठ करोड एक लाख आठ हजार एक सौ पचसत्तर अक्षर और बचे । इनका पद पूर्ण न हो सका। इसलिये इनके बत्तीस अक्षर प्रमाण बत्तीस लाख, तीन हजार तीन सी अस्सी हये और चन्द्रह प्रक्षर शेष बचे । इन इलोकों के चौदह अंग प्रकीर्णक रचे। पहला सामायिक प्रकीर्णक इसमें साम्यभाव का वर्णन है ।।१।। दूसरा स्तवन प्रकीर्णक । इसमें चतुविशनि तीर्थंकरों का स्तवन है॥२॥ तीसरा वंदना प्रकोणक । इसमें पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय तथा तीर्थवंदना का प्रकरण है ॥३॥ चौथा प्रतिक्रमण प्रकीर्णक । इसमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से किये गये अपराध उनके शोधन तथा प्रायश्चित्तादि का वर्णन है ।।।। पांचवां वनयिक प्रकीर्णक । पंचविध विनय अर्थात् दर्शन विनय १. ज्ञान विनय २. चारित्र विनय ३. तप विनय ४, और उपचार विनय ५. इनका विशेप वर्णन है।शा छठा कृतिकर्म प्रकीर्णक । इसमें त्रिकाल सामायिक विधि का विशेष वर्णन है ॥६॥ सातवां दस वैकालिक प्रकीर्णक । इसमें ग्रहगोचर और ग्रहण गादि का वर्णन है ||७|| आठवां उत्तराध्ययन प्रकीर्णक है। इसमें अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी के निर्वाणगमन का वर्णन है ।।८॥ नववां कल्पव्यवहार प्रकीर्णक है । इसमें सुयोग्य प्राचरण जनित दोषों के प्रायश्चित का वर्णन है ।।९दशवां कल्पाकल्प प्रकीर्णक। इसमें विषय कषायादिक हेय तथा ज्ञान वैराग्यादि उपादेय के विधि निषेध का वर्णन है॥१०।। ग्यारहवा महाकल्पप्रकीर्णक है। इसमें यति के उचित अर्थात् योग्य वस्तु, क्षेत्र काल का विशेष वर्णन है ।।११।। बारहवां पुण्डरीक प्रकीर्णकहै । इसमें प्रायश्चित विधि का वर्णन है। किन किन कर्मों के द्वारा देवादिक किन किन गतियों का जीव प्राप्त होता है, इसका वर्णन है ।।१२।। तेरहवां महापुण्डरीक प्रकीर्णक है। इसमें किन किन शुभ कर्मों के उदय से महा ऋद्धि के धारक देवों की पदवी प्राप्त होती है. इसका वर्णन किया गया है ।।१३।। चौदहवां पुण्डरीक निशीत का प्रकीर्णक है। इसमें दोषों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित सूत्रों का वर्णन है ।।१४। इस प्रकार श्री उपाध्याय परमेष्ठी के ग्यारह अंग चौदहपूर्व के ज्ञान स्वरूप २५ गुण होते हैं ।। ये उपाध्याय परमेष्ठी स्वयं प्राचार्य के निकट शिक्षा ग्रहण और तत्व चर्चा करते रहते हैं। तथा प्राचार्य के आदेशानुसार निकटवर्ती अन्यशिष्यों को भी पढ़ाते हैं इसलिए उनको पाठक भी कहते हैं । यद्यपि ये भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के ज्ञाता, पंचाचार परायण, उत्तम क्षमादि दशलक्षण रूप धर्म के धारक होने से प्राचार्य के समान सर्वदा तत्पर रहते हैं, परन्तु अन्तर इतना ही है कि प्राचार्य शिक्षा दीक्षा देने के अधिकारी व संघ के अधिष्ठाता समझे जाते हैं और ये उपाध्याय नहीं, क्योंकि संघ में संधाधिपति तो एक ही होता है परन्तु उपाध्याय अनेक होते हैं। इनका अध्ययन और अध्यापन करना ही मुख्य कर्म होता है। ऐसे शान के सागर श्री उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति पूजा तथा गुणानुवाद करने से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके समान मुझे भी ज्ञान की प्राप्ति हो ।
समाप्तोऽयं उपाध्यायगुणानुबादः ।।