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णमोकार ग्रंप
दोहा-दर्शन शाम चारित्र तप, बीरज पंचाचार ।
मना पत्र मात्र सो, प्राचारज सुखकार ॥ अर्थ – भावकर्म, द्रव्यकर्म, नौकर्म आदि समस्त पदार्थों से भिन्न शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा ही उपादेय है, ऐसा श्रद्धान करना तथा इसकी उत्पत्ति के कारण षड् द्रव्य, सप्त तत्त्व अथवा सुगुरु, सुदेव, सुधर्म का श्रद्धान सभ्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन रूप प्रवृत्ति को दर्शनाचार कहते हैं ॥१॥ शुद्ध चैतन्य प्रात्मा को मिथ्यात्व, रागादि पर भावों से पृथक जानकर उपाधि रहित जानना तो सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यग्ज्ञान रूप. प्रवृत्ति को ज्ञानाचार कहते हैं । २१ उपाधि रहित शुखात्मा के स्वाभाविक सुखास्वाद में निश्चल चित्त होना अथवा संसार के कारण भूत हिंसादि पापों का प्रभाव करना सम्यक्चारित्र है। इस सम्यकचरित्र रूप प्रवृत्ति को चारित्राचार कहते हैं ।।३।। समस्त पर द्रव्यों से इच्छा रोककर अनशनादि रूप प्रवर्तन करना तप है । इस तपरूप आचरण को तपाचार कहते हैं ।।४।। पूर्वोक्त कहे चार प्रकार के प्राचारों के रक्षण करते में शक्ति न छिपाना अथवा परिग्रह पाने पर भी इनसे च्युत नहीं होना वीर्य है। इस वीर्य रूप प्रवृत्ति को वीर्याचार कहते हैं ।५। मन से राग द्वेष रूप परिणामों का परिहार करना मनोगुप्ति है ।।१।। असत्य वचन का परिहार कर मौनपूर्वक ध्यान अध्ययन प्रात्मचितवनादि करना वचनगुप्ति है ॥२१॥ हिंसादि पापों से निवृत्तिपूर्वक तथा काय सम्बन्धी कुचेष्टा की निवृत्ति कर कायोत्सर्ग धारण करना काय गुप्ति है ॥३॥
॥अथ षडावश्यकनाम ||
बोहा-समतावर चंदन करें, नानास्तुति बनाय ।
प्रतिक्रमण स्वाध्याययुत, कायोत्सर्ग लगाय ॥१॥ अर्थ ---भेदज्ञान पूर्वक सांसारिक पदार्थों को अपने प्रात्मा से पृथक जानकर जीवन मरण, लाभप्रलाभ, संयोग-वियोग, शत्रु-मित्र, सुख-दुःख में समान भाव रखना तथा शुभाशुभ कर्मों के उदय में राग ?ष रूप परिणामों को न करना समता है ॥१॥
चतुर्विशति तीर्थकरों में से एक तीर्थकर की या पंचपरमेष्ठी में से एक की मुख्यता कर मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक स्तुति करना वंदना है ॥२।। मुख्यता बिना चौबीस तीर्थकरों की अथवा पंचपरमेष्ठी की स्तुति करना स्तवन है ॥३।। आहार, शरीर, शयन, आसन, गमनागमन और चित्त के व्यापार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रयभूत काल में लगे हुये व्रत सम्बन्धी अपराधों को शोधना, निन्दा गृहीयुक्त अपने अशुद्ध परिणाम पूर्वक किये हुए दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है ।।४।। काय से निर्ममत्र होकर खड़े हुए या बैठे हुए शुद्धात्म का चितवन करना कायोत्सर्ग है ।।५।। वाचना, पृच्छनादि पंच प्रकार शास्त्रों का अध्ययन अथवा शुद्धात्मा चितवन करना स्वाध्याय है ॥६॥ इस प्रकार प्राचार्य के अनशनादि बारह तप, उत्तम क्षमादि दशधर्म, दर्शनाधारादि पंचाचार, समता वंदनादि षडावश्यक कर्म तथा त्रिगुप्ति सहित गुणों का वर्णन किया। इन छसीस गुणों के अतिरिक्त भावार्य अवपीडक अपरिश्रावी आदि अष्ट गुणयुक्त होते हैं और अपने संघ के मुनि समूह को लगे हुए दोषों का प्रायश्चित और धर्मोपदेश, शिक्षा-दीक्षा देते हैं।