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णमोकार ग्रंथ
ॐ ह्रीं अहं तेजोराशये नमः ||६०६।। तेज के समूह होने से आप तेजोराशि है ।।६०६॥ ॐ ह्रीं श्रहं अनस गाने नमः । अनन्त न मी होने से यार अनन्तीजा है ।।६१०॥ ॐ ह्रीं अर्ह अनंतज्ञानाब्धये नमः ।।६११॥ ज्ञान का सागर होने से ग्राप ज्ञानाब्धि हैं ||१११॥
ॐ ह्रीं ग्रह शीलसागराय नमः ||६१२॥ शील के सागर अथवा स्वस्वभाव के सागर होने से ग्राप शीलसागर कहलाते हैं ।।६१२।।
ॐ ह्रीं अर्ह तेजोमयाय नमः ।।११३|| तेजरूप होने से ग्राप तेजोमय हैं ॥१३॥
ॐ ह्रीं अहं अमितज्योतिषे नमः ||६१४॥ अनन्त ज्योति के धारक होने से प्राप प्रमितज्योति कहलाते हैं ।।६१४॥
ॐ ह्रीं ग्रह ज्योति मूर्तये नमः ।।६१५|| तेजस्वरूप होने से आप ज्योतिमूर्ति है ।।१५।।
ॐ ह्रीं अई तमोपहाय नमः ।।६१६|| प्रज्ञान रूपी अधिकार के नाश हो जाने से आप तमोपह कहलाते हैं ॥१६॥
ॐ ह्रीं अहं जगच्च डामणये नमः ॥११७|| तीनों लोकों के मस्तक के रत्न होने से प्राप जगत के चूडामणि कहलाते हैं ।।६१७॥
ॐ ह्रीं मह दीप्तये नमः ।।११८॥ तेजस्वी होने के कारण अथवा प्रकाशमान होने से प्राप दीप्त हैं ।।६१८॥
*ह्रौं ग्रह शेवते नमः १६१६।। अत्यन्त सुखी होने से आप शंवान् कहलाते हैं ||१६||
ॐ ह्रीं अर्ह विघ्नविनायकाय नमः ।।९२०॥ विघ्नों के अथवा अन्तराय कर्मों के नाश होने से पाप विघ्नविनायक कहलाते हैं .।। ६२० ।।
ॐ ह्रीं महं कलिघ्नाय नमः ।।६२१॥ दोषों को दूर करने से पाप कलिघ्न है ।।१२१।।
ॐ ह्रीं ग्रह कर्मशत्रुघ्माय नमः ॥६२२।। कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने मे आप कर्मशत्रुधन हैं ॥६२२||
ॐ ह्रीं अई लोकालोकप्रकाशाय नमः ।। २३|| लोक और प्रलोक को देखने और जानने वाले होने से प्राप लोकालोक प्रकाशक हैं ।।६२३।।
ॐ ह्री अहं अनिद्रालुये नमः ।। ६२ ४।। निद्रा रहित होने से प्राप अनिद्रालु हैं ।।१२४॥ ॐ ह्रीं अर्ह प्रतन्द्रालुवे नमः ॥२५॥ प्रमाद रहित होने से पाप प्रतन्द्रालु हैं ।। ६२५||
ॐ ह्रीं अहं जागरूकाय नमः ।१६२६। अपने स्वरूप की सिद्धि के लिए सहा जागरूक रहने से पाप जागरूक कहलाते हैं ||२६||
ॐ ह्रीं मह प्रमामयाय नमः ।।९२७॥ पाप ज्ञानरूप होने से प्रमामय हैं ॥६२७॥
ॐ ह्रीं पई लक्ष्मीपतये नमः ||६२८|| मोक्षरूपी अविनाशी लक्ष्मी के स्वामी होने से प्राप लक्ष्मीपति हैं ।।१२८॥
___ॐ ह्रीं महं जगज्ज्योतये नमः ॥९२६।। अगत् को प्रकाशित करने से आप जगज्योति हैं ।।६२६॥
ॐ ह्रीं मह धर्मराजाय नमः ।।६३०|| धर्म के स्वामी होने से पाप धर्म के राजा है ।।६३०||
ॐ ह्रीं ग्रह प्रजाहिताय नमः ।।६३१|| प्रजा के हितैषी होने से प्राप प्रजाहित कहलाते हैं ।१९३१॥
ॐ ह्रीं मह मुमुक्षवे नमः १९३२॥ निर्वाण के विरूप होने से माप मुमुक्षु कहलाते हैं ।।९३२॥