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गोत्र कर्म के प्रभाव से प्रगुरुलधुत्व गुण प्रगट हुमा १६|| नाम कर्म के प्रभाव से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हुमा ।।७॥ वेदनीय कर्म के प्रभाव से निरावाधत्व गुण प्रगट दुधा ||८॥ इस प्रकार प्रष्ट कर्मों के प्रभाव से सिद्ध भगवान् निकल परमात्मा हैं उनके पाठ गुण प्रगट होते हैं। उस निकल परमात्मा को मेरा बारबार नमस्कार हो । और कैसे हैं वे निकल परमात्मा ? वे इन्द्रिय अगोचर ज्योति स्वरूप सुख पिड़ समुद्रबत् स्थिर हैं। प्रतिम शरीर से किचितदून शरीराकार प्रमाण सीन लोक प्रम के भाग में तिष्ठते हैं सो उनका भाकार दृष्टान्त पूर्वक जिनागम के अनुसार लिखते हैं :
भासना हाहा.. कासे शोक वृक्षस जी। सांचों करो इक मोम को फिर गारा लेप षरांत जी ।। सुखवायतको अग्नि घेकर मोम काहानिये।
पोलाखा में हैं जैसे सिद्ध प्राकृति जानिये ॥१॥ भावार्थ-जैसे मोम का एक पुतला नख शिख पर्यन्त समचतुरस्र संस्थानवाला पुरुषाकार बनाया जावे फिर उसके ऊपर जैसे मनुष्य की त्वचा होती है वैसे मूतिका.लेप करके, सुखाकर अग्नि में तपाकर मोम के शरीराकार प्राकृति गीली मिट्टी के साँचे के मध्य केवल पुरुषाकार आकाश रह गया, वैसे ही निकल परमात्मा जो सिद्ध भगवान् है । उनका स्वरूप जानना चाहिये । प्राकाश तो शून्य और जड़ है और वह पूरन चेतन चिद् प है । इतना ही इसमें अन्तर है । प्राकृति में कुछ अन्तर नहीं है। इस प्रकार परम ब्रह्म का स्वरूप निराकार और साकार इस दृष्टान्त से अनुभव करना चाहिये । पुन कैसे है वे सिद्ध भगवान् ? सिद्धालय में विराजमान हैं ज्ञान नेत्र से प्रगट होते हैं, चर्म नेत्र से दिखाई नहीं देते । सिद्ध भगवान् द्रदत्वापेक्षा स्थिर और अर्थ पर्याय से उत्पाद्, व्यय, धौव्य से युक्त हैं । भावार्थसंख्यात गुणावृद्धि अनंतगुणानुद्धि, संख्यात भाग गुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतभागगुण हानि असंख्यातमाग गण हानि. अनंतभाग गुण हानि, ऐसे षट पतित हानि बद्धि अर्थ पर्याय से सिद्धों के होते हैं। और कैसे हैं सिद्ध भगवान् ? ध्यान रूपी अग्नि से कर्मकाष्ठ जलाकर विकार रहित, अविनाशी अनंतकाल पर्यन्त, तीन लोक के शिरोमणि, उत्कृष्ट स्थान ऐसे लोक शिखर पर स्थित ज्ञान स्वरूप, तीन लोक के द्वारा बंदनीय सिद्ध परमात्मा को मेरा बारम्बार नमस्कार हो । इतिसिद्धगुण वर्णन समाप्त ः॥
प्राचार्य के गुणों का वर्णन करते हैं :दोहा-द्वादश तप वशधर्मयुत् पालें पंचाचार ।
षड्मावश्यक त्रयगुप्तिगुण, प्राचारजपरसार ॥१॥ बाहर प्रकार का तप, दस प्रकार के धर्म, पांच प्रकार के पंचाचार, षट् प्रावश्यक और तीन गुणत इस प्रकार छत्तीस गुण प्राचार्य के होते हैं। ऐसे गुणों के धारक प्राचार्य को मैं नमस्कार करता हूं। प्रथम द्वादश प्रकार के तप के स्वरूप का निरूपण करते हैं :
बोहा- अनशन नोबर करें, प्रत संख्या रस छोरि ।
विवक्ति वनग्रासन बरे, कायक्लेश को ठौर ॥१॥ मनशन तपप्रथ-अनशन अर्थात् उपवास करना ।