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णमोकार ग्रंथ
ॐ ह्रीं अर्ह कांतायनमः ।।६०६।। शोभायुक्त होने से माप कांत हैं ।।६०६।।
ॐ ह्रीं अहं चितामणये नमः ।।६०७।। चितामणि के समान इच्छित पदार्थों को देने से प्राप चितामणि हैं ।। ६०७।।
ॐ ह्रीं ग्रह अभीष्ठदाय नमः ।।६०८।। पाप भव्य जीवों को इष्ट पदार्थों की प्राप्ति कराते हैं इसलिये आप अभीष्ठदा हैं ।।६०८||
___ॐ ह्रीं ग्रह अजिताय नमः ।। ६०६।। काम क्रोधादि किसी भी योद्धा से पाप जीते नहीं जाते इसलिये आप अजित हैं ॥६०६।।
___ॐ ह्रीं अर्ह जितकामारिणे नमः ।।६१०]। कामरूप शत्रु को जीतने से प्राप जितकामारि है ।।६१०।।
ॐ ह्रीं मह अमिताय नमः ॥६११।। मर्यादा रहित होने से आप प्रमित हैं ॥६११|| ॐ ह्रीं अहं अमितशासनाय नमः ॥६१२|| आपका शासन अपार होने से प्राप अमितशासन
ॐ ह्रीं अहं क्रोधजिताय नमः ॥६१३॥ क्रोध को जीत लेने से पाप जितक्रोध है ।। ६१३॥
ॐ ह्रीं अर्ह जितामित्राय नमः ॥६१४|| कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने से आप जितामित्र हैं ॥६१४।।
ॐ ह्रीं अहं जितक्लेशाय नमः ।।६१५॥ समस्त क्लेशों को जीत लेने से प्राप जितक्लेश
ॐ ह्रीं भई जितांतकाय नमः ।।६१६।। यम को जीत लेने से पाप जितांतक कहलाते हैं ।।६१६।।
ॐ ह्रीं अहं जिनेन्द्राय नमः ॥६१७।। गणधरादि जिनों के इन्द्र होने से प्राप जिनेन्द्र हैं ॥६१७।।
ॐ ह्रीं अह परमानंदाय नमः ।।६१८।। उत्कृष्ट आनन्द स्वरूप होने से आप परमानन्द हैं ॥६१८।।
ॐ ह्रीं ग्रह मुनींद्राय नमः ।।६१६।। मुनियों के इन्द्र होने से पाप मुनीन्द्र है ।।६१६॥
ॐ ह्रीं अहं दुदुभिस्वनाय नमः ॥६२०॥ दुदुभियों के समान प्रापकी ध्वनि होने से पाप दुदुभिस्वन हैं ।।६२०॥
ॐ ह्रीं ग्रह महेन्द्रवंदाय नमः ॥६२१।। महेन्द्र के द्वारा पूज्य अथवा वंदनीक होने से प्राप महेन्द्रवंद्य हैं ।। ६२१।।
ॐ ह्रीं ग्रहं योगीन्द्राय नमः ।। ६२२॥ योगियों के इन्द्र होने से प्राप योगीन्द्र है ।।६२२।। ॐ ह्रीं अह यतीन्द्राय नमः ॥६२३।। यतियों के इन्द्र होने से आप यतीन्द्र हैं ।।६२३।।
ॐ ह्रीं अह नाभिनन्दनाय नमः ।।६२४॥ महराजा नाभिराजा के पुत्र होने से आप नाभिनन्दन कहलाते हैं ।।६२४।।
ॐ ह्रीं मह नाभेयाय नमः ।।६२५।। पिता का नाम नाभि होने से पाप नाभेय कहलाते हैं ॥६२५||
ॐ ह्रीं प्रहं नाभिजाय नमः ॥६२६॥ महाराज नाभि के घर जन्म लेने से भाप नाभिज हैं ॥६२६।