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णमोकार ग्रंथ
प्राप्त होकर वह प्रात्मा सकल परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है। उस समय इन्द्रादिक देव पाकर सामान्य केवलियों के लिए गन्ध कुटी और भगवान् तीथंकरों के लिए समवशरण की रचना करते हैं।
नों का रहस्य ले करके समवशरण का वर्णन करते हैं-प्रथम समवशरण की भूमि सव भूमि से पांच हजार धनुष पाकाहा में ऊँचाई है जिसकी, ऐसी श्री आदिनाथ भगवान के समवशरण की पृथ्वी बारह योजन प्रमाण, नील मणि के समान प्रभावशाली और देदीप्यमान किरणों के समह से अत्यन्त उज्जवल गोलाकार है। इसी पर समवशरण की समस्त रचना है। आदिनाथ भगवान के समवशरण की भूमि का जो प्रमाण था वह नेमिनाथ भगवान् पर्यन्त प्राधा प्राधा योजन कम होना गया । भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के समवशरण में भूमि का यह प्रमाण पाव पाव योजन कम था।
भावार्थ-महावीर स्वामी के समवशरण की भूमि का प्रमाण एक योजन का था उसके चारों दिशाओं में समस्त भूमि से लगाकर समवशरण भूमि तक प्रत्येक दिशा में २०, २० हजार स्वर्णमयी सीढ़ी होती हैं, उनकी चौड़ाई तथा ऊंचाई एकर हाथ प्रमाण और लम्बाई एक कोश की होती है। उन सीढ़ियों का प्रमाण भी आदिनाथ भगवान् से लेकर वर्द्धमान भगवान् तक कम होता गया । अब भगवान् ऋषभदेव के समवशरण की रचना, के लिए भूमि का जो प्रमाण है उसको २: का भाग दीजिा उममें, एक भाग घटाइये. ऐसे नेमिनाथ तक एक भाग घटाना और पार्श्वनाथ तथा महावीर भगवान के उससे प्राधा भाग घटाना। प्रथम कहा है जो दिला उस शिला के सम्बन्ध में शिलानमन की चारों दिशाओं में चार गलियां हैं । उन गलियों की चौड़ाई, शिलानमन को लम्बाई के प्रमाण है जैसे ऋषभ देव भगवान् के समवशरण में तेईसको लम्ची और एक काश चौड़ी गली है, इस प्रकार धूनी साल के द्वार से गन्ध कुटी-द्वार तक लम्बाई जानना । इन गलियों के दोनों ओर स्फटिक मणियुक्त भीत है उसको वेदी कहते हैं । इन दोनों वेदियों के बीच जो चौड़ाई है सो गली की चौड़ाई है उन वैदियों की चौड़ाई वृषभदेव के साढ़े सात सौ धनुष है और फिर यह चौड़ाई कम होती गई है। उन गलियों के मध्य चार अन्तगल भुमि है और उसमें चार कोट पांच बेदी है। इन नौ के अन्तराल में पाठ भमि हैं। फिर शिला के अन्त में कोट है, उसके ऊपर दूसरा कोट है, उससे आगे उपवन की भूमि है । उससे आगे वेदी है, उसके ऊपर ध्वजा समूह भूमि और तीसरा कोट है । उससे आगे कल्प वृक्ष भूमि है, उसके आगे दी है उसके ऊपर मन्दिर की भूमि है, उसके ऊपर चौथा कोट है, उसके ऊपर सभा की भुमि है फिर बेदी है। ऐसे तीन गनी है। नोन गली के अन्तराल भूमि में-भूमि सम्बन्धी रचना जानना चाहिये । उन गलियों में चार कोट पांच वेदी के द्वारा एक गली सम्बन्धी नौ द्वार हैं इस प्रकार चारों गली सम्बन्धी ३६ द्वार हो गये । प्रथम कोट और प्रथम वेदी के मध्य प्रथम भूमि है। प्रथम कोट और प्रथम वेदी के द्वार के बीच जो गली है उसे प्रथम भूमि कहते हैं। ऐसे ही अन्य दारों के बीच द्वितीया आदि भूमि है, वहां प्रथम भूमि की गली के मध्य भाग में मानस्तंभ है चारों दिशाओं सम्बन्धी चार मानस्तम्भ हैं। हर एक मानस्तंभ के चारों, दिशाओं में चार बावड़ी हैं हर गली के दोनों ओर दो नाट्य शालाए हैं। ऐसे ही चौथी गली । भी दो नाट्यशालाए हैं। छोटी गली के दोनों ओर इससे दुगनी नाट्यशालाएं है । सप्तम भूमि में चारों दिशाओं में 8-६ रत्न स्तूप हैं और आठवीं भूमि में द्वादश सभा हैं। उन सभामों में कौन कौन बैठते हैं उसका वर्णन करते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पाया है :
तेषुमुम्यशर : स्वाया । घोतिभोमासुरस्त्रियः । नागव्यन्तरचंद्रागाः। स्वमूनपशवः क्रमात् ।।