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णमोकार मंय
अर्थ-वह महादेव कैसे हैं ? जो तीन लोक के गोचर और अलोक सहित समस्त लोक को जानने वाले हैं जैसे अंगुलि सहित हथेली में तीन रेखा साक्षात् दिखाई देती हैं। और रागद्वेष, भय, रोग, मृत्यु, जरा, लोभ आदि दोष जिनका पद उल्लंघन न कर सकें, उस महादेव की मैं वंदना करता हूं। इस जगत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जिन तथा बुद्ध आदि नाम के धारी देवप्रसिद्ध है परन्तु जिनका ज्ञान एक समय में तीन लोक की अनन्तानन्त द्रव्य, गुण और त्रिकालवर्ती अनन्त पर्याय इन समस्त पदार्थ को प्रत्यक्ष जाने वह ही तीन जगत का नाथ, तीन- छत्र से शोभायमान ईश्वर कहलाता है। उस ईश्वर को मेरा बार-बार नमस्कार हो ॥३॥
। भगवान के प्रति भामण्डल का होना-बह भामाडल कैसा है ? जिसमें भव्य राशि के सात भव झलकते हैं।
भावार्थ-तीन भव पिछले और तीन भव आगे के और एक भव वर्तमान ऐसे सात भव जिनेन्द्र के पीछे भामण्डल में दिखते हैं सो ये जिनेन्द्र का ही अतिशय है और वह भामण्डल कैसा है ? अपने अतिशय से तीन लोक के पदार्थों की छुति को तिरस्कार करता हुआ प्रकाशमान, अनेक सूर्य के समान तेजस्वी होने पर भी चन्द्रसमान शीतल, प्रभा से रात्रि को भी जीतता है।।। भगवान के मुख से निरक्षर ध्वनि होना :
भावार्थ-भगवान की दिव्य ध्वनि खिरते समय होट, तालु, रसना, दन्त आदि में क्रिया नहीं होती है। मेघ की गर्जना के समान उनकी ध्वनि होती है स्वर्गापवर्ग का मार्ग बताने में इष्ट समीचीन धर्म और वस्तु स्वरूप कहने में अद्वितीय समस्त भाषा स्वभाव परिणमयी भगवान् की दिव्य ध्वनि होती है ॥५॥ देवों के द्वारा पुष्प वृष्टि होना
भावार्ष-मन्दार सुन्दरनमेरु, सुपारीजात आदि कल्प वृक्षों के पुष्पों की जो वृष्टि देवों द्वारा को जानी है, वह मालूम होती है मानों भगवान के दिव्य गुणों की पंक्ति ही प्रसारित हो रही है ।।६।।
यक्ष जाति के देवों के द्वारा भगवान के दोनों ओर ३२-३२ चमरों का ढोरना ॥७॥
भगवान् के समवसरण में दुन्दुभि बाजे बजना ।।८।। जब आगे चार अनन्त चतुष्टयों का वर्णन करते हैं ?
दोहा-शान प्रनन्तानन्त सुख, दर्शन अनन्त पषाण।
बल अनन्त अर्हन्त सो इष्ट देव पहचान ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय हैं-शान अनन्त, दर्शन अनन्त, बल अनन्त, सुख अनन्त ऐसे चार अनन्त चतुष्टय केवली भगवान सकल परमात्मा के होते हैं।
भावार्थ-- सकल परमात्मा की आत्मा के चार घातिया कर्म दूर हो जाते हैं इस कारण चार अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं । 'अर्थात् १- ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-मोहनीय, ४-अन्तराय, ये घातिया कर्म आत्मा के निजगुण ज्ञान, दर्शन, सुख, बल को धात करने वाले हैं अतः इनको पातिया कर्म कहते हैं । ये घातिया कर्म अनादि काल से जीवन के साथ लगे हैं, और जब तक यह जीवात्मा सकल परमात्मा न होगा तब तक यह कर्म उसके साथ लगे रहेंगे जैसे स्वर्ण में मैल है उसी प्रकार जीव से अनादि काल से कर्म रूपी मल सम्बन्धित है। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि में तपने से मैल से पृथक होकर अपने निज स्वभाव को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र पोर तप रूपी अग्नि में तप कर कर्म रूप मैल से अलग होता है । अलग होकर अपने निज स्वभाव पनन्त चतुष्टय को