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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
धर्म - प्रभाव सामर्थ्य होने से रत्नत्रय ही धर्म है।
जिससे जीवाजीवादि तत्त्वों का बोध होता है, उसे महान् पुरुष सम्यग् ज्ञान कहते हैं । आत्मा और उससे भिन्न अजीव, ये दो मुख्य वस्तु हैं। इन दोनों मुख्य तत्त्वों में संसार के सर्व दृश्य और अदृश्य पदार्थों का समावेश हो जाता है । जड़ पदार्थों के साथ जो आत्मा की आसक्ति है उसके कारण ही वह सर्व प्रपंच दिखाई देता है । आत्मा और जड़ पदार्थ का जो संमिश्रण है, वही नाना प्रकार के देह धारण करने का कारण है । इष्टानिष्ट जड़ पदार्थों की प्राप्ति से उत्पन्न होने वाला हर्ष शोक ही इस संमिश्रण का कारण है, जड़ पदार्थों के लिए उत्पन्न होते हुए राग द्वेष से कर्म का आगमन होता है । ये कर्म अनेक रूप में विभाजित होकर आत्मा के शुद्ध गुणों को आच्छादित करते हैं (दबाते हैं)। उम कर्म आवरणों के द्वारा यह आत्मा चतुर्गतिरूपी संसार में परिभ्रमण करती हुई अनेक प्रकार की यातनाओं, पीड़ाओं का अनुभव करती है । संसार की अनेक विध पीड़ाओं की शांति का मुख्य कारण मात्र ज्ञान है । ज्ञान से सत्यासत्य का, नित्यानित्य का, हिताहित का और स्वरूप का बोध होता है । वस्तु का वस्तु के रूप में बोध होने से सत्य और हितकारी वस्तु की ओर प्रीति पैदा होती है । वही सुख दायी है ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है । यह श्रद्धा प्राप्त होने पर तदनुसार आचरण करने की रुचि होती है और उस प्रकार वर्तन करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकती है । तात्पर्य यह है कि सद्ज्ञान से सत्य वस्तु मालूम होती है, सद् दर्शन से उसमें श्रद्धा पैदा होती है और चारित्र से तदनुसार वर्तन किया जाता है । या यों कहें कि सत्य वस्तु जानने को सत् ज्ञान, उसके निश्चय को सद्दर्शन और जैसा जाना तथा जैसी श्रद्धा वैसा ही आचरण करना वह चारित्र । ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों में ज्ञान की मुख्यता है । क्योंकि इसके वगैर पिछले दोनों अंग प्राप्त नहीं होते।
अदृष्टार्थ का प्रकाशक ज्ञान तीसरे नेत्र के समान है । गाढ़ अज्ञान अंधकार को दूर करने वाला ज्ञान सूर्यबिम्ब के समान है । ज्ञान निष्कारण बन्धु है । ज्ञान मनुष्यों के लिए संसार रूपी समुद्र में जहाज के समान है । कर्म के