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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
बन्धन मुक्ति प्रसन्न होकर उस सिद्ध पुरुष ने मुझे पाठ - सिद्ध बोलने से अपने गुण को प्रकट करने वाली एक स्तंभनकारी और दूसरी वशी - करण वश करने वाली दो विद्याएँ दी । इसके उपरांत एक रस का भरा हुआ तूंबा देकर उसने कहा कि भद्र इस तूंबे का अच्छी तरह से रक्षण करना । यह रस मैंने बड़े कष्ट से प्राप्त किया है । यह लोह भेदी रस है जिसके एक बिन्दु के स्पर्श मात्र से लोहे का स्वर्ण बन जाता है । मेरी दुःखी अवस्था में तूंने बड़ी सहाय की है । तूं मुझे बिल्कुल नहीं पहचानता, एवं मेरी तरफ से तुझे किसी तरह की आशा भी न थी क्योंकि धनवान के समान मेरे पास वैसा कोई भी आडम्बर नहीं । इसलिए तूंने निःस्वार्थ बुद्धि से मेरी सहायता की है, इसीसे तेरी उत्तमता और सत्कुलीनता का पता लगता है । मैं जो तुझे प्रत्युपकार में ये दो विद्याएँ और एक सुवर्ण सिद्धरस का तूंबा दे रहा हूँ इनके द्वारा तूं एक महान् राज्यसंपदा प्राप्त कर सकेगा परमात्मा तेरे श्रेष्ठ कर्तव्यों का तुझे बदला दे और तेरे मनोरथों का सिद्ध करें । इत्यादि शिक्षा और आशीर्वाद देकर वह सिद्ध पुरुष गिरनार पहाड़ की तरफ चला गया । ___ सिद्ध पुरुष ने अपने ऊपर उपकार करनेवाले मनुष्य पर अपनी शक्ति के अनुसार प्रत्युपकार किया। किये हुए उपकार को भूल जानेवाले, शक्ति होने पर भी और अवसर मिलने पर भी प्रत्युपकार न करने वाले मनुष्य धिक्कार के पात्र हैं । इस प्रकार के कृतघ्न मनुष्य उपकार को भले ही भूल जायँ, बदला न दें, तथापि परिणाम की विशुद्धि पूर्वक निःस्वार्थ बुद्धि से किया हुआ परोपकार उसे अपने मीठे फल अवश्य चखाता है ।
सिद्ध पुरुष की शिक्षा को स्वीकार कर मैं चंद्रावती नगरी में फिरने गया। वहाँ फिरते हुए मैं लोभाकर और लोभानन्दी नामक व्यापारियों की दुकान पर पहुंचा । व्यापार निपुण एवं कपट प्रपंच में भी निपुण उन बनियों ने मेरा बहुत ही आदर सत्कार किया, उनकी दिखलायी हुई शिष्टता के कारण मैं प्रसन्न होकर उनके स्वाधीन हो गया । अतः विश्वास पाकर उस रस के तूंबे को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें सौंपकर मैं कुछ दिन के लिए आगे दूसरे गाँव चला गया।
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