Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 256
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र मलयासुंदरी का उपदेश आपकी करुणापूर्ण पवित्रदृष्टि मुझ अभागे पर पड़ न सकी । मैं अभाग्यशेखर आपकी अमृतमय उपदेशवाणी न सुन सका! एक दरिद्र मनुष्य के समान मेरे मनोरथ मन में ही विलीन हो गये! हा! मेरी ही राज्य में धर्ममुर्ति पिताश्री की यह दशा! यदि मैं संध्या समय ही यहां आया होता तो मुझे कल ही सब तरह का लाभ प्राप्त हो जाता । परंतु धिक्कार है मेरे प्रमादी जीवन को! इस प्रकार दुःख मनाते हुए राजा ने राजपुरुषों को आज्ञा दी - सुभटो! जाओ उस दुष्टात्मा के पदचिह्न देख कर उसे जीवित ही मेरे पास ले आओ। राजा की आज्ञा होते ही अनेक राजसुभट चारों और दौड़ पड़े। पदचिह्न पहचानने वाले राजपुरुष उस स्त्री के पदचिह्न के अनुसार धीरे - धीरे शहर से बाहर एक खंडहर पड़े हुए मठ के पास जा पहुंचे । बस यहां पर ही वह पापात्मा कनकवती छिपकर बैठी थी । राजपुरुषों ने उसे बांध लिया और राजा के पास ला खड़ी की । राजा ने ताड़ना तर्जना द्वारा मुनिराज को भस्म करने का कारण पूछा । उसने अपना किया हुआ तमाम अकृत्य बतला दिया । राजा ने सुभटों के द्वारा अनेक प्रकार की मार से उसे जान से मरवा डाला । उसने अपने किये हुए दुष्ट कर्मों के अनुसार ही फल पाया । वह मृत्यु पाकर छट्ठी नरक में उत्पन्न हुई। अपराधी को दण्ड देने पर भी राजा शतबल का शोक दूर न हुआ। उसके हृदय का कारी घाव न भरा । गुरु और पिता की त्रुटि पूरी न हुई । प्रधान पुरुषों के समझाने पर भी उसके हृदयाकाश से शोक के बादल नष्ट न हुए । इधर यह समाचार पृथ्वीस्थानपुर में पहुँचने पर राजा सहस्रबल के भी शोक का पार न रहा । उसके आनन्द में निरानन्द छा गया। दोनों राजाओं ने पिता के शोकसागर में निमग्न होकर अपने तमाम प्रकार के सुखों को त्याग दिया । अब रात दिन उनके सामने पिता के गुण और उनकी वह विषममृत्यु दिख पड़ती है, इससे राज्य का सर्व कार्य शिथिल होने लगा। इधर साध्वी मलयासुन्दरी ने निर्मल चारित्र पालन करते हुए ज्ञानाभ्यास में आगे बढ़कर क्रम से ग्यारह अंग पर्यन्त का ज्ञान प्राप्तकर लिया था । उसने तत्त्वज्ञान में बहुत गहरा प्रवेश किया था । ज्ञानोपार्जन के साथ वह तीव्र तप भी 239

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