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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
मलयासुंदरी का उपदेश करती थी । ज्यों क्लिष्ट कर्मो को क्षय करने में वह रातदिन सावधान रहती थी त्यों नये कर्मबन्ध से भी बचने में बड़ी सावचेत रहती थी । क्योंकि कर्म के भयंकर परिणाम का अनुभव उसने इसी भव में किया हुआ था। अभी तक वह उन दुःख के दिनों को भूल न गयी थी।
निरन्तर ज्ञानध्यान में प्रयत्न करते हुए उस महासती को अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई थी । गुरु महाराज ने उसकी उच्च योग्यता को देख उसे महत्तरा की (प्रवर्तनी) पदवी से विभूषित किया था । अवधिज्ञान के प्रकाश से वह मनुष्यों के संदेह दूरकर उन्हें सद्बोध देकर धर्म मार्ग में प्रेरित करती । अपने ज्ञान के प्रकाश से एक दिन उसने महामुनि महाबल का निर्वाण हुआ देखा । शतबल को पितृशोकसागर में निमग्न देख उसका उद्धार करने की भावना से महत्तरा मलयासुन्दरी अनेक साध्वी समुदाय के साथ विहारकर सागरतिलक शहर में पधारी।
__ अपनी माता महत्तरा मलयासुन्दरी का आगमन सुनकर राजा शतबल को बड़ी खुशी हुई। समाचार मिलते ही वह सपरिवार तत्काल महत्तरा को वन्दना करने आया । नमस्कारकर वह धर्म शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा से परिवार सहित उचित स्थान पर बैठ गया।
अमृत के समान मधुर वचनों द्वारा प्रसन्नमुख से साध्वी मलयासुन्दरी ने उपदेश करते हुए कहा "शतबल ! क्या तुम शरीर की क्षणभंगुरता, आयुष्य की अल्पता और संयोगों की वियोगशीलता भूल गये ? पुत्र ! संसार में इस नश्वर देह से कौन अमर रहा है ? अनन्त बलधारक और देवदेवेन्द्रों से सेवित तीर्थकरों ने भी क्या इस देह का परित्याग नही किया ? महासत्वशाली मनुष्यों में शिरोमणि तुम्हारे पिता महामुनि महाबल उस स्त्री के किये हुए उपसर्ग के बाद केवलज्ञान प्राप्त करके उसी समय निर्वाण पद को पाये हैं।
जिसके लिए धन, धाम, स्वजन, स्त्री पुत्रादि सर्व वस्तुओं का परित्याग किया जाता है, जिसके लिए तपश्चरण आदि दुष्कर धर्म क्रियायें कर महानदुःख सहन किये जाते हैं, वह दुर्लभ में दुर्लभ परम पद उन्होंने प्राप्त किया है । वे जन्म
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