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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र स्वर्ग गमन और उपसंहार
स्वर्ग गमन और उपसंहार
परोपकार प्रवीणा महत्तरा मलयासुन्दरी सागर तिलक से विहारकर अब अपने लघुपुत्र की राजधानी पृथ्वीस्थानपुर में आ पहुँची । पिता के शोक से राजा सहस्रबल की भी खराब दशा हो रही थी । महत्तरा ने उसे भी उपदेश देकर कर्तव्य मार्ग में स्थिर किया।
पृथ्वीस्थानपुर में महत्तरा के आगमन का समाचार सुनकर शतबल भी उसके दर्शनों और भाई से मिलने की उत्सुकता से वहाँ आ गया । अब निरन्तर दोनों भाई धर्मपरायण होकर महत्तरा का धर्मोपदेश सुनते हैं और एकाग्रमन से धर्मसेवा करते हैं । उनकी धर्मश्रद्धा बड़ी दृढ़ थी । वे सदैव त्रिकाल जिन पूजन करते, सुपात्र दान देते, यथाशक्ति तपश्चरण करते, अनेक विध संघ की भक्ति और वात्सल्य करते थे । गरीब अनाथों के लिए जगह - जगह पर अन्नदान के क्षेत्र खोल रखे थे । जीवहिंसा या अधर्म एवं अनीति के मार्ग में गमन करनेवालों को सक्त कानून या सत्ता द्वारा रोका जाता था । उन दोनों भाइयों ने अपनी प्रजा में अनेक प्रकार के उपकारकर जैनधर्म का भी खूब प्रचार किया था । प्रजा के लिए स्वयं अपने खर्च से हर एक शहर में जैन मन्दिर निर्माण करवाये थे। धर्मात्माओं के लिए पोषधशालायें, बीमारों के लिए औषधालय, अपाहिजों के लिए अनाथालय और बेकार पशुओं के लिए पाँजरापोलें निर्माण करवायीं।
महत्तरा मलयासुन्दरी अपने दोनों पुत्रों को धर्ममार्ग में स्थिरकर वहाँ से अन्यत्र विहार कर गयी । अनेक देशदेशान्तरों में विचरकर उसने हजारों मनुष्यों को धर्म में जोड़ा । उसके सारगर्भित धर्मोपदेश में जादू - सा भरा था । उसकी शान्त और आनन्दी मुखमुद्रा दर्शकों को नमने के लिए विवश करती थी। राजतेज और तपस्तेज एकत्रित होने से उसकी धर्मदेशना का श्रोताओं पर बड़ा गहरा असर पड़ता था । उसे देखते ही कठिन हृदयवाले मनुष्य के मन में भी पूज्यभाव पैदा होता था।
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