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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
निर्वाण - प्राप्ति हुआ है, वह तुझसे जुदा है, उसके जल जाने पर तुझे जरा भी आँच न आयगी। क्योंकि तूं अमर है और अरूपी है । यह अग्नि तेरे पूर्व संचित किये कर्ममल को जलाकर तुझे विशुद्ध करती है,।
इत्यादि प्रबल विशुद्ध भावना बल से कनकवती पर द्वेष और शरीर पर ममत्व भाव पैदा न होने देकर समभाव की सरल श्रेणी से वह महात्मा आगे बढ़ा। एकत्व भावना में लीन होने के कारण उसके शुभाशुभ कर्मो और देह ममत्व का भाव सर्वथा नष्ट हो गया। इस आत्म स्थिति में निमग्न होने से घाति कर्मो का क्षय होते ही उसके हृदयाकाश में केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय हो गया। ज्यों वह अग्नि जल रहा था त्यों आत्मा में शुक्लध्यान प्रज्वलित हो रहा था। इस शुक्ल ध्यानरूपी आन्तर अग्नि ने देह भस्म होने से पहले ही शेष रहे हुए अघाति कर्मों को भी भस्मीभूत कर डाला । बस अब वह सर्वकर्मों का नाश होने से कृतकार्य हो सदा के लिए जन्म, जरा मरण से मुक्त होकर शाश्वत अविनाशी निर्वाण पद को प्राप्त हो गया।
धन्य है ऐसी पवित्रात्माओं को।
• स्व दया का स्थान जिन शासन में सर्वोत्तम है । स्व दयापालक
वास्तविक अहिंसक, दयावान् एवं ज्ञानी है। . स्व दया से युक्त मानव का आचरण पर - पीड़ा के कार्यों से रहित होगा। वह किसी का अहित चिंतन भी नहीं करेगा।
जयानंद
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