Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 253
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र निर्वाण - प्राप्ति अग्नि काष्ट में प्रदीप्त हो गया । आत्म ध्यान में सावधान खड़े हुए महामुनि ने अपने पर मरणान्त उपसर्ग आया देख मनःसाक्षी आराधना कर ली । अब वह दुःसह वेदनायें सहन करता हुआ अपने आपको बोध देने लगा। सचमुच ऐसे समय ही आत्मा और देह की भिन्नता का स्पष्ट ज्ञान मालूम होता है । ज्ञानवान मनुष्य की सच्ची परीक्षा ऐसे ही अवसर पर हुआ करती है। ऐसे ही वक्त पर स्वभाव में स्थित रहने से कठिन कर्म नाश होते हैं और अपने सच्चे बल की परीक्षा देने का सुअवसर भी ज्ञानवान महापुरुषों को अपने जीवन में कदाचित ही प्राप्त होता है। अपने चारों ओर लकड़ियाँ चिन दी हैं, किसने और किसलिए ऐसा किया है ? इसका परिणाम क्या होगा ? अब अग्नि शरीर तक पहुँचनेवाला है और उससे मैं जीवित ही जल मरूँगा इन तमाम बातों से महामुनि महाबल अज्ञात न था । उसने प्रथम से ही केवल ज्ञान धारी गुरु महाराज के मुख से सुना हुआ था कि एक दफा कनकवती महाबल को फिर दुःसह उपसर्ग करेगी। एवं स्वयं भी इस समय उसे अपनी नजर से देख रहा था । यहि वह इस संकट से बचना चाहता तो खुशी से बच सकता था इतना ही नहीं किन्तु यदि वह अपने पर अत्याचार करनेवाली कनकवती को शिक्षा देना चाहता तो यह सामर्थ्य भी उसमें था ही । इस शहर का राजा भी उसी का पुत्र और परम भक्त है । यह सब कुछ होने पर भी उस महामुनि ने मरणान्त कष्ट क्यों सहन किया होगा ? यह बात साधारण पाठक के मन में आश्चर्य पैदा करनेवाली है। जिस ज्ञानवान त्यागी मुनि ने अपने शरीर के ममत्व को त्याग दिया । जिसे किसी भी प्रकार की शारीरिक मूर्छा नहीं है वह संसार के कारागृह से मुक्त होकर सदानन्द देनेवाले आत्म स्वरूप की प्राप्ति के मार्ग में रोड़ा अटकानेवाले शरीर ममत्व को सामने क्यों आने देगा ? विशेष कारण तो वह मुनि ही जाने हमें क्या पता लग सकता है ? ऐसे प्रसंग पर जिस जागृति की आवश्यकता होती है, वह उस महा पुरुष में प्रथम से ही थी । अब वह मानसिक वृत्ति को आत्म स्वभाव में स्थित रखने के लिए स्वयं ही समभाव में दृढ़ होने लगा । आत्मा ! तूं जिस देह मंदिर में रहा 236

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