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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र निर्वाण - प्राप्ति निकल कर उसी शून्य जंग की तरफ जा रही है । जिधर त्याग मूर्ति राजर्षि महाबल आत्मध्यान में लीन हो खड़े हैं। सचमुच ही इस समय परम संवेग रस में निमग्न हो आत्म स्वरूप के चिंतन द्वारा वह धर्म मूर्ति महामुनि संसार में जन्म मरण पैदा करानेवाले अपने कठिन कर्मों को नाश करने में तल्लीन हो रहा था । ठीक इसी समय वह स्त्री उस महामुनि के समीप आ पहुँची । दैवयोग से सदा वहाँ ही रहनेवाला बगीचे का माली भी आज किसी कार्यवश शहर में ही रह गया था, अतः उस भूमिभाग को जन संचार रहित देख कर वह स्त्री बड़ी प्रसन्न हुई ।
पाठक महाशय ! भ्रान्ति में न पड़े । यह अन्य कोई नहीं आपकी पूर्व परिचिता और महाबल मुनि की पूर्व भव की वैरन कनकवती ही है । आज ऐसी अवस्था में इसे महाबल से बदला चुका लेने का सूझा है । अहा कितनी नीचता ! कितना क्रूर स्वभाव ! अपने पराये, शत्रु मित्र, सुवर्ण और पाषाण पर समान भाव रखनेवाले और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए ध्यान मग्न अवस्था में खड़े हुए महामुनि को जीवित जला देने का घोर पापकर्म करने का भयंकर साहस !! हे सदय हृदय ! धिक्कार नहीं परंतु ऐसे घोर पाप कर्मकर के भावी परिणाम में नरक की भयंकर यातना भोगनेवाले प्राणियों पर तूं दया धारण कर उसी प्रदेश में किसी मनुष्य ने कोयले करने के लिए बहुत सी लकड़ियाँ डाली हुई थीं । उस दुष्टा स्त्री ने अपने पापकर्म की सिद्धि में उन लकड़ियों का उपयोग कर लिया । घोर अन्धकारवाली रात्रि में उस वक्त यहाँ पर अपना ही राज्य समझकर कनकवती ने उन लकड़ियों को उठा उठाकर ध्यानस्थ खड़े हुए मुनिराज के चारों और चिन दिया । लकड़ियाँ बहुत पड़ी थीं अतः पैर से लेकर सिर तक लकड़ियों का खूब ढेर लगा दिया जिससे कहीं से भी उसका शरीर मालूम न दे सके ।
मुनि को चारों तरफ से लकड़ियों द्वारा वेष्टितकर कनकवती ने चारों गति के अनेक प्रकार के दुःखों से अपनी आत्मा को वेष्टित कर लिया । जन्मान्तर के वैरानुबन्ध से निर्दय हो अब उसने उस जीवित चिता के चारों तरफ अग्नि सुलगा दी । मानो कनकवती के पुण्य संचय को जड़ से ही भस्मीभूत करता हो इस प्रकार
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