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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
कठिन परीक्षा अपराध है । रानी पद्मावती ने हाथ पकड़कर पुत्रवधू को अपनी गोद में बैठाकर स्नेह से कहा - पुत्री ! तूंने उस समय अपना सच्चा वृत्तांत क्यों न मालूम किया? अथवा उस अवसर पर तेरा मौन रहना ही ठीक था । क्योंकि तुम्हारी यह विचित्र घटना उस वक्त सच कहने पर भी किसी के मानने में न आती । पुत्री ! अज्ञानता के कारण हमने तुझे कैसा असह्य दुःख दिया है? हा, हा! यदि उस अवसर पर तेरा कुछ भी अनिष्ट होता तो हमारी क्या दशा होती ? सचमुच ही अभी तक हमारे पुण्य का उदय है, इसी कारण इतना कष्ट सहकर भी हमारे कुल का उद्धार हो गया । बेटी! तुम परमार्थ को जाननेवाली कुलीन बाला हो अतः हमारा यह अपराध तुम्हें क्षमा करना चाहिए। तेरे सरीखी सद्गुणवाली राजकुमारी के साथ विधिपूर्वक विवाहकर वधू सहित सत्यप्रतिज्ञ राजकुमार को देख हम अपने मानवजन्म को सफल समझते हैं । यों कहकर रानी पद्मावती ने अपनी कीमती आभूषण देकर पुत्रवधू मलयासुंदरी का अच्छी तरह सत्कार क्रिया ।
राजा बेटा! अलंबगिरि का गुफा में सर्परूप में फिर तुमने क्या क्या अनुभव किया? महाबल बोला - पिताजी ! शेष दिन तो शांति से ही बीत गया था । संध्या समय योगी मेरे पास आया, उसने आकर दूध से मेरे मस्तक पर किये हुए तिलक को मिटा दिया, इससे मेरा स्वाभाविक रूप हो गया। वह फिर मुझसे बोला - कुमार! चलो फिर अपना मंत्र साधन शुरू करें। मैं उसके साथ चला गया । अग्नि से जाज्वल्यमान कुण्ड के पास जाकर योगी ने मुझे फिर उस कलवाले मृर्दे को लाने की आज्ञा दी । मैंने पहले के समान ही वटवृक्ष से मृतक को नीचे उतार दिया । मैंने पहले के समान ही वटवृक्ष से मृतक को नीचे उतार योगी के पास ला रखा । योगी ने उसे स्नान कराकर मंडल के अंदर लिटा दिया और उत्तर साधक के तौर पर मैं उसके पास खड़ा रहा। अब ज्यों - ज्यों उस योगी ने मंत्र जाप जपना शुरू किया त्यों - त्यों वह मृतक उठ उठ कर फिर वापिस नीचे पड़ने लगा । इस तरह जाप करते हुए आधी रात बीत गयी । तब आकाश में डमरू का शब्द सुनायी दिया । इसके बाद प्रत्यक्ष में यह ध्वनि सुन पड़ी "अरे! यह मृतक अशुद्ध है, इससे सुवर्ण पुरुष सिद्ध न होगा ।" यों
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