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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
सुख के दिन तमाम वृत्तांत आप जानते ही है । राजकुमार ! यदि आप मेरे साथ चलें तो मैं आपको वह स्थान बतला सकती हूँ । वहां पर बहुत ही धन भरा है । उसे ग्रहणकर जिसका हो उसे आप वापिस दे दवें । मुझे अकेली को इतने धन की कोई आवश्यकता नहीं है । तथा गुप्त वैभव भोगते हुई राजपुरुषों को खबर होने पर मेरी भी चोर के जैसी दुर्दशा न हो इसलिए मैं उस द्रव्य को नहीं चाहती ।
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महाबल उसी स्त्री को महाराज शूरपाल के पास ले गया और आवश्यकतानुसार कुमार ने महाराज को उसका परिचय दिया । राजा उस स्त्री को अपने आगेकर कुछ राजपुरुषों को साथ ले उस पहाड़ की गुफा में गया । वहां उस स्त्री ने बड़ा भारी दबा हुआ खजाना बतलाया । राजा ने वह तमाम माल बाहर निकलवाया और प्रजा को बुलाकर जिसकी जो वस्तु चुरायी गयी थी उनको वह - वह वस्तु दे दी । जिस धन का कोई मालिक न हुआ, वह वह पदार्थ सब लेकर राजा वापिस शहर में आ गया । उस स्त्री की योग्यता के अनुसार उस धन में से धन राजा ने उस स्त्री को दिया । उसे लेकर कुमार के साथ वह फिर उसके महल में आयी । वहां पर उसने गले में लक्ष्मीपुंज हार धारण किये आनंद रस में निमग्न हुई मलयासुंदरी को बैठे देखा । मलयासुंदरी को देखते ही उसके हृदय में भयंकर चोट पहुंची हो इस तरह वह सहसा स्तब्ध हो गयी । आश्चर्य में पड़कर वह विचारने लगी - अरे ! यह दुष्ट लड़की किस तरह जीवित रही? अंधकूप में से कैसे निकली? और इस कुमार ने कब और किस तरह इसका पाणिग्रहण किया? ये तमाम बातें जानने की उसके हृदय में तीव्र जिज्ञासा हुई । परंतु कुछ भी पूछने का साहस नहीं हुआ । उसने सोचा यदि मैं इससे यह बात पुछूंगी तो यह मेरा तमाम विचित्र चरित्र प्रकट कर देगी और फिर मुझे यहां रहना तक भी मुश्किल हो जायगा । यह लक्ष्मीपुंज हार भी उस मेरे दुश्मन ने इसे लाकर दिया मालूम होता है । या क्या मालूम इन दोनों ने ही मिलकर, नदी किनारे मुझसे हार ले लिया हो । बिल्कुल ये दोनों मेरे दुश्मन हैं । इत्यादि विचार करती हुई कनकवती से मलयासुंदरी बोली - 'माता! आज यह अनभ्रा वृष्टि कैसे हुई ? आप यहां अकेली कैसे आयी ? और आपकी नाक की यह दुर्दशा कैसे और कहां हुई?
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