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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
वैराग्य और संयम में इतने दृढ़ हो गये कि दूसरे मनुष्यों को भी वेधर्ममार्ग में जोड़ने की प्रेरणा करने लगे।
तलवार की धार के समान तीव्र तपाचरण करते हुए राजर्षि महाबल क्रम से सिद्धान्त का पारगामी हो गीतार्थ हो गया । आत्मोद्धार के लिए महान् प्रयत्न शील महामुनि महाबल को गीतार्थ होने के कारण अकेले विचरने की भी गुरुमहाराज ने आज्ञा दे दी । अपने क्लिष्ट कर्मनाश करने के लिए उसने भी समुदाय से स्वतंत्र विचरना पसन्द किया । अब वह महातपस्वी अपने साधुसमूह से पृथक् होकर जंगलो, श्मशानों, पहाड़ों और गिरिकंदराओं में निवासकर घोर तप के द्वारा आत्मोज्ज्वल करने लगा।
अपनी मनोवृत्ति को दमन करते हुए इस महामुनि ने आत्मधर्म में मेरु पर्वत के समान निश्चलता प्राप्त की थी । उपसर्गो को सहन करने में पृथ्वी के समान सहनशीलता प्राप्त की थी। अपने श्रमणधर्म में स्थिर रहने के लिए उसे आकाश के समान किसी आलम्बन की आवश्यकता न थी । उसकी मुख मुद्रा चंद्र के समान सौम्य थी । उसका पवित्र हृदय समुद्र के समान गम्भीर था । वह वैराग्य रस में लीन होकर आत्मध्यान द्वारा कर्मशत्रुओं को निर्मूल करने में निरन्तर सावधान रहता था अपने और पराये के लिए उस महात्मा के हृदय में द्वैतभाव न रह गया था एक दिन विहार करते हुए सन्ध्या के समय परम त्याग की मूर्ति वह महामना महाबल मुनि सागर तिलक नगर के समीप बाह्योद्यान में आ पहुँचा। अपने क्लिष्ट कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय पाकर आत्मीय शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने का ही लक्ष्यबिन्दु होने के कारण संध्या समय होने से वह वहाँ पर ही एक राजकीय बगीचे के पास कायोत्सर्गध्यान मुद्रा में ध्यानस्थ हो खड़ा रहा।
ठीक इसी समय उस बगीचे का माली घूमता हुआ उस महामुनि की ओर आ निकला । उसने ध्यानसमुद्र में खड़े महाबल राजर्षि को देखकर पहचान लिया। क्योंकि वह तो सरकारी ही माली था, परन्तु सागर तिलक का तो बच्चा - बच्चा भी महाबल को पहचानता था । ध्यानस्थ मुनि को नमस्कारकर वनमाली शीघ्र ही शहर में आया और उसने राजसभा में जाकर राजा शतबल
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