Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 247
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र वैराग्य और संयम यही कार्य सिद्धि की सूचना है, यह विचार करते हुए राजा प्रसन्न चित्त हो सिंहासन से नीचे उतरा । उत्तरासन करके जिस दिशा में शहर से बाहर महात्मा ठहरे हुए हैं उस दिशा तरफ पाँच - सात कदम चलकर जमीन पर मस्तक लगा पंचांग नमस्कार किया । गुरु महाराज के समागम की खबर लानेवाले वनमाली को प्रीतिदान देकर विदा किया । फिर तुरन्त ही राजसभा बरखास्तकर राजा गुरुमहाराज को वन्दनार्थ जाने की तैयारी करने लगा । देर ही क्या थी, तुरन्त ही सर्व तैयारी होने पर तमाम राजकुल को साथ ले राजा गुरुमहाराज के समीप जा पहुँचा और उन्हें भक्तिभाव पूर्वक नमस्कारकर धर्मोपदेश सुनने के इरादे से गुरुमहाराज के सन्मुख बैठ गया । महात्मा ने धर्मदेशना प्रारम्भ की । I सज्जनो ! वास्तविक सुख क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, लालच और विषय तृष्णाओं को कुचल डालने पर अपने ही भीतर से प्राप्त होता है । बस इसे ही आत्मशुद्धि कहते हैं । आत्मा में सुख का परम भण्डार भरा है । परन्तु पूर्वोक्त दोषों को नाश किये बिना वह प्राप्त हो नहीं सकता। आत्मशुद्धि के सिवा सच्चे सुख का लाभ होना असम्भव हैं। मान लो कि पानी से भरा हुआ एक विशाल कुण्ड है और उसमें एक अमूल्य रत्न पड़ा है, परन्तु उस कुण्ड का पानी गंदला है और बार - बार पवन की लहरियों से वह पानी हिलझुल रहा है । उस मलीन और हलन चलनवाले तरंगित पानी की परिस्थिति में कुण्ड में नीचे पड़े हुए अमूल्य रत्न को क्या आप देख सकेंगे ? कदापि नहीं । बस इसी प्रकार आत्मा का शुद्धरूप रत्न मनरूपी पानी में नीचे पड़ा है। वह मन रूपी पानी विषय कषाय की मलीनता से गंदला हो रहा है और अनेक प्रकार की कुत्सित विचार तरंगों से डोलायमान हो रहा है । इसलिए जब तक विषय कषाय का अभाव और मनोगत अनेक वितर्कों की शान्ति न हो तब तक शुद्धात्मरत्नरूपी सच्चे सुख के दर्शन या प्राप्ति की आशा रखना व्यर्थ है । इसी कारण आत्मशुद्धि के लिए मलीन मानसिक वृत्तियों का परित्याग करना चाहिए। बाह्य उपाधियाँ जो मनोवृत्ति को मलीन करती है उनका भी त्याग करना चाहिए। ऐसा करने पर ही नित्य अविनाशी आत्मिक सुख प्राप्त होता है । गुरु महाराज के मुख से पूर्वोक्त धर्मदेशना सुनकर राजा महाबल 230

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