Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 245
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र जरा भी विलम्ब न करना चाहिए । वैराग्य और संयम मनुष्य पर जो संकट या विपत्ति आती है, वही उसे सच्चा मनुष्य बनाने, सच्चा मानव जीवन जीने का पाठ सिखाने के लिए आती है। संकट में ही मनुष्य सहनशीलता का शिक्षण प्राप्त करता है । दुःख में ही मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य का विचार करता है । सुख में मनुष्य को कुछ भी शिक्षण नहीं मिलता इतना ही नहीं बल्कि प्रत्युत वह अपने आपको भी भूल जाता है । सांसारिक सुख एक प्रकार का नशा है, उसे कोई बिरला ही झेल सकता है । इसे प्राप्तकर अपने स्वरूप का मान रखना यह साधारण बात नहीं है । बड़े - बड़े विद्वान भी इस मृगतृष्णा के लालच में पड़कर अपने कर्तव्यमार्ग से नीचे गिर जाते हैं, जब यह दशा है तो फिर सद्गुणी, सुशील, सुन्दर स्त्री, गुणवान् पुत्र और विशाल राज्यवैभव प्राप्त कर महाबल क्यों न अपने आपको भूल जाता ? अपने ऐश आराम के साधन प्राप्त करते हुए भी याने सांसारिक सुख में निमग्न होकर भी उसने सुचारु राज्य व्यवस्था के कारण दूर देशों तक अपनी कीर्तिरूपी सुगन्धी फैला दी थी। जितना अच्छा हो सकता है उतना इच्छा राज्यकार्य करने में उसने कुछ भी बाकी न उठा रक्खा था। महाबल राज्यवैभव से सर्वथा धर्ममार्ग से विमुख न हुआ था, किन्तु उसे जो आत्मोद्धार का परम कर्तव्य पालन करना था उसे वह अवश्य भूल गया था । राज्यकार्य और व्यवहारिक मार्ग में प्रवेश किये उसका बहुत - सा समय व्यतीत हो गया था । एक दिन अर्धरात्रि के समय सुखशय्या में सोते हुए उसे एक त्यागमूर्ति दिखाई दी, जो उसे उद्देश्य कर रही थी - "इतनी घोर निद्रा ! अभी तक काल्पनिक सुख स्वप्न भंग नहीं हुआ ?” बस समय हो गया, इस अमूल्य जीवन के कीमती क्षण व्यर्थ न गवाँओ, यह स्वप्नसा देखकर महाबल की निद्रा भंग हो गयी । उसने सावधान हो उठकर चारों ओर देखा पर उसे कोई भी नजर न आया । अब वह सुने हुए सारगर्भित वाक्यों पर विचार करने लगा। उस रात्रि के प्रशान्त वातावरण में तात्त्विक विचार करते हुए उसके हृदय में अपने परम कर्तव्य ज्ञान के सूर्योदय की एक किरण प्रकाशित हुई । 228

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