Book Title: Mahabal Malayasundari Charitra
Author(s): Tilakvijay, Jayanandsuri
Publisher: Ek Sadgruhastha

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Page 234
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र पूर्वभव वृत्तान्त भी क्रोध अधिक भड़का । वह उसे अहंकारी, पाखण्डी कहकर निष्ठुर वचनों से उसकी कदर्थना करने लगी । वह अपने सुंदर नामक नौकर से बोली- सुन्दर! यह जो पास में इंटों का पँजावा पक रहा है जा वहाँ से आग ले आ मैं इस पाखण्डी वेषधारी को दाग दूंगी, जिससे इसका किया हुआ अपशकुन दूर हो जायगा और इसका अहंकार भी नष्ट हो जायगा । सुंदर बोला स्वामिनी ! मेरे पैरों में जूते नहीं हैं वहाँ जाने में रास्ते में कांटे बहुत हैं व्यर्थही कांटो में कौन जाय ! और साधुको दाग देने से तुम्हें क्या फायदा होगा ? इन निकम्मे विचारों को छोड़ो गाड़ी हाँकने दो अभी दूर जाना है। अपनी स्त्री के हुक्म का अनादर हुआ देख पत्नी के आदेश को सम्मति देनेवाला प्रियमित्र दूसरे नौकर की और देखकर क्रोध के आवेश में बोला - अरे ! इस सुन्दर के दोनों पैर इस वटवृक्ष की शाखा से बाँध दो जिससे इसके पैर में जमीन पर पड़े हुए काँटे न लगने पावें। अपने विचारों की पति की सहानुभूति मिल जाने पर प्रियसुंदरी को और भी जोश आ गया । अब वह गाड़ी से नीचे उतरकर बोलने लगी "अरे पाखण्डी ! तेरे मुंडितरूप दर्शन से हमारी पतिपत्नीरूप इस जोड़ी में कदापि वियोग न हो । तेरा अपशकुन तुझे ही हानिकारक हो । तेरे बन्धुवर्ग से तेरा सदैव वियोग हो । तूं सचमुच राक्षस जैसा है, इसी कारण तुझे देखकर हमें डर लगता है । इस प्रकार अनेक विध कटु वचनों से मुनि का तिरस्कार करती हुई निष्ठुर हृदयवाली सुंदरी ने मानों अपने सुख पर प्रहार करती हो इस तरह मुनि पर तीन दफा पत्थर का प्रहार किया। इतना करने पर भी उसे दुष्कर्म से संतोष न हुआ । उसने मुनि के पास आकर उसके हाथ में से रजोहरण (जैनमुनि का चिन्ह) छीन लिया और उसे अपनी गाड़ी में रख लिया । ऐसा करने पर उसने कुछ संतोष माना, अतः नौकरों से बोली - "चलो अब हमारा अपशकुन दूर हो गया । अब हमें कुछ भी अनिष्ट न होगा । चलो अब निर्भय होकर आगे चलो" धनंजय यक्ष की पूजा करेंगे"। सुंदरी की आज्ञा पाकर सब आगे चल पड़े और कुछ देर के बाद धनंजय यक्ष के मंदिर के समीप आ पहुँचे। 217

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