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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त पड़ता है, तब फिर दूसरे प्राणियों को वह क्यों देना चाहिए ? सुख प्राप्त करनेवाले मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों को भी सुख ही दे । हर एक मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल सुख या दुःख रूप में अवश्य भोगना पड़ता है ।
करुणा से प्रेरित हो अपकारीपर भी उपकार करनेवाले त्याग मूर्ति मुनिराज ने उन्हें अनेक प्रकार से हित शिक्षा दी। संक्षेप में द्वादश व्रतरूप गृहस्थ धर्म समझाया । उन दोनों ने मुनि का दिया हुआ हितोपदेश प्रेमपूर्वक सुना और पापकर्मो से मुक्त होने के लिए एवं भविष्य में सुख प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने सम्यकत्वपूर्वक गृहस्थ धर्म अंगीकार किया । अब जैनधर्म को स्वीकारकर वैराग्य रंग से तरंगित हो मुनि को आहारादि के निमित्त प्रार्थनाकर वे अपने घर आये। मुनि भी कुछ देर बाद समय होने पर भिक्षा के लिए नगर में गया । अपने योग्य निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करते हुए मुनिराज अकस्मात् स्वाभाविक ही प्रियमित्र के घर आ पहुँचे। मुनि का दर्शन करते ही अपने जन्म को सफल मानते हुए दम्पती ने बड़े हर्ष पूर्वक मुनि को विशुद्ध आहार पानी का लाभ दिया आहार कर मुनि अन्यत्र विहार कर गया ।
परस्पर प्रेम धारण करते हुए प्रियसुन्दरी और प्रियमित्र सम्यक् श्रद्धानपूर्वक मनुष्य जन्म के सारभूत गृहस्थ धर्म की आराधना करने लगे । आपस में स्नेह रखती हुई रूद्रा और भद्रा भी एक जुदे घर में रहकर अपने माने हुए धर्मानुसार यथाशक्ति दानादि से पुण्य उपार्जन करने लगी। परस्पर प्रेम होने पर भी एक दिन ऐसा कारण बन गया जिससे उन दोनों में भी खूब क्लेश हुआ। परन्तु कुछ देर बाद शान्त होने पर उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ, इससे वे दोनों एक जगह बैठकर विचार करने लगी कि - धिक्कार है हमारे जीवन को, जिसमें जरा भी सुख नहीं । हमारा जन्म बिलकुल निरर्थक है । इस घर में सदैव क्लेश रहता है । पति की ओर से तो हमें सर्वथा सुख नहीं; क्योंकि उसे तो सुन्दरी ने ही अपने स्वाधीन कर रखा है । वे दोनों पति - पत्नी हमारे सामने देखते तक नहीं है, प्रेम से बोलने की तो बात ही क्या ? हम दोनों में प्रेम है सही पर कभी न कभी हम में भी क्लेश हो ही जाता है । इस तरह क्लेशमय जीवन बिताने की अपेक्षा
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