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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब तक मेरा रजोहरण मुझे वापिस न मिले तब तक मैं अन्यत्र न जाकर यहाँ ही खड़ा रहूँगा। ___अब प्रियमित्र और प्रियसुन्दरी मुनि के पास आ पहुँचे सुन्दरी ने मुनि का रजोहरण वापिस दे दिया। अपने अज्ञान पूर्ण कृत्य के लिए पश्चात्ताप करते हुए उनकी आँखें भर आयी । वे क्षमायाचना करते हुए मुनि के चरणों में लेट गये
और दीनतापूर्वक प्रार्थना करने लगे कि हे कृपा समुद्र ! प्रभो ! अज्ञानता से परतंत्र होकर हमने जगत पूज्य महामुनि की कदर्थना याने विराधना की है । इस मुनि विराधना के पाप से कुंभार के चाक पर चढ़े हुए मिट्टी के पिण्ड के समान हमें संसार चक्र में परिभ्रमण करना पड़ेगा । अनेक दुर्गतियों में घोर दुःख सहने पर भी हमारा इस पाप कर्म से छुटकारा न होगा । हे दया के सिन्धो ! क्षमासागर! भगवन् ! प्रसन्न होकर हम अज्ञान पामर प्राणियों को क्षमा करो। हे दीन बन्धो! करुणाकर हम अविनीतात्माओं का यह अपराध माफ करो और इस पाप से सर्वथा मुक्त होने का हमे कोई उपाय बतलाओ।
उनके करुणाजनक और पश्चात्ताप पूर्ण वचन सुनकर मुनि ने अपना कायोत्सर्ग पूर्णकर कहा - "हे महानुभावो ! मेरे हृदय में क्रोध नहीं है । अज्ञानता से कर्माधीन इसी भव को माननेवाले परमार्थ से परान्मुख और अपने ही कर्म से अनेक प्रकार की विटंबना को प्राप्त हुए संसार के पामर प्राणियों पर तत्त्व को जाननेवाले मुनि कदापि क्रोध नहीं करते । यदि वैसे लब्धिगुण धारी मुनि महात्मा किसी कारण क्रोध करें तो वे जगत को भस्मीभूत कर सकते हैं। मेरा हृदय संसार के समस्त प्राणियों के लिए करुणा रस पूर्ण है । इसी कारण मैं किसी की प्रेरणा बिना ही सर्व जीवों पर क्षमाभाव रखता हूँ। तथापि महानुभावो! मुझे तुम्हें इतना जरूर कहना पड़ता है कि इस प्रकार की मूढ़ता या अज्ञानता को त्यागकर विवेकी बनना चाहिए और अज्ञानता को दूर करने वाले और आत्मस्वरूप का ज्ञान करानेवाले तुम्हें जैन धर्म को स्वीकार करना चाहिए। आत्मा की नित्यता और कर्मो की विचित्रता समझनी चाहिए । समस्त प्राणी सुख की इच्छा रखते हैं। तुम्हें खुद को सुख प्रिय लगता है और दुःख भयानक जान
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