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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
पूर्वभव वृत्तान्त लिया था । उस रजोहरण को छीनते समय उसके क्लिष्ट अध्यवसाय के प्रमाण से वैसे ही विषम फल स्वरूप में बलसार द्वारा छीना जाने पर मलयासुन्दरी को भी अपने निर्वासित जीवन काल में अपने पुत्र का वियोग दुःख सहना पड़ा । जिस मुनि को इन दोनों स्त्री-पुरुषों ने उपसर्ग किया था और बाद में अपनी भूल मालूम होने से जिसके पास उन्होंने पश्चात्ताप पूर्वक गृहस्थ धर्म अंगीकार किया था वही मुनि इस समय केवल ज्ञानी की अवस्था में विचरता है और मैं स्वयं ही वह मुनि हूँ । महाबल और मलयासुन्दरी का यह दूसरा जन्म है परन्तु मैं तो अभीतक उसी भव में विचर रहा हूँ ।
शूरपाल - भगवन् ! महाबल कुमार और मलयासुन्दरी को कनकवती अब फिरतो उपसर्ग नहीं करेगी ?
ज्ञानी महात्मा - राजन् ! कनकवती की ओर से मलयासुन्दरी को नहीं परन्तु महाबल को अवश्य एक दफा भय उपस्थित होगा । वह फिरती हुई यहाँ ही आयगी और इसी नगर के बाहर एक दफा महाबल कुमार को भयंकर उपद्रव करेगी और उसी पापकर्म के कारण वह संसार चक्र में पड़कर नीचादि योनियों में पैदा हो अनेक प्रकार के घोर दुःख सहन करेगी ।
अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर असह्य यातनाओं से बचने के लिए योग्यतानुसार महाबल और मलयासुन्दरी ने गृहस्थ धर्म अंगीकार किया और इस जन्म के दुःखों का कारण भूतपूर्व जन्म में विराधित मुनिपद की आराधना करने का विशेष अभिग्रह धारण किया । इन दोनों के पूर्वभव सम्बन्धि वैराग्य गर्भित चरित्र को सुनकर अनेक मनुष्यों ने वैराग्य प्राप्तकर संयम लेने की उत्सुकता बतलायी । कितनेक भद्रिक परिणामी मनुष्यों ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया और बहुत से क्रूर मनुष्यों के हृदय पिघलकर कोमल बन गये। अपने पुत्र और पुत्री का विचित्र और बोध जनक वृत्तान्त सुनकर संसार दुःख से भयभीत हो सूरपाल और वीरधवल राजा चारित्र ग्रहण करने को तैयार हो गये । वे हाथ जोड़कर ज्ञानगुरु से बोले भगवन् ! अपने राज्यभार की व्यवस्था करके हम आपके चरणों में संयम ग्रहण करेंगे। गुरुजी ने कहा - " महानुभावो ! ऐसे कार्य में विशेष विलम्ब न करना चाहिए ।
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